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जैन सिद्धान्तों के सन्दर्भ में वर्तमान आहार-विहार
आचार्य राजकुमार जैन भारतीय चिकित्सा परिषद्, नई दिल्ली
प्रगतिशील कहे जाने वाले वर्तमान वैज्ञानिक एवं भौतिकवादी युग में आज मनुष्य की समस्त प्रवृत्तियां अन्तर्मुखी न होकर बहिर्मुखी अधिक हैं। इसी प्रकार मनुष्य की समस्त प्रवृत्तियों का आकर्षण केन्द्र वर्तमान में जितना अधिक भौतिकवाद है, उतना अध्यात्मवाद नहीं है। यही कारण है कि आज का मनुष्य भौतिक नश्वर सुखों में ही यथार्थ सुख की अनुभूति करता है, जिसमें अन्तिम परिणाम विनाश के अतिरिक्त कुछ नहीं है। वर्तमान में किया जा रहा सतत चिन्तन, अनुभूति की गहराई, अनुशीलन की परम्परा और तीव्रगामी विचार प्रवाह-सब मिलकर भौतिकवाद के विशाल समुद्र में इस प्रकार विलीन हो गए हैं कि जिससे अन्तर्जगत की समस्त प्रवृत्तियाँ अवरुद्ध हो गई हैं। इसका एक यह परिणाम अवश्य हुआ है कि वर्तमान मनुष्य समाज की अनेक वैज्ञानिक उपलब्धियां हुई हैं, जिससे सम्पूर्ण विश्व में एक अभूतपूर्ण भौतिकवादी वैज्ञानिक क्रान्ति का प्रसार लक्षित हो रहा है। इस वैज्ञानिक क्रान्ति ने जहां धर्म
और समाज को प्रभावित किया है, वहां मनुष्य जीवन का कोई भी अंश उसके प्रभाव से अछूता नहीं रहा है। यही कारण है कि मनुष्य के आचार विचार एवं आहार-विहार में आज अपेक्षाकृत परिवर्तन दिखलाई पड़ रहा है। आज मनुष्य पुरानी परम्पराओं का पालन करते हुए स्वयं रूढ़िवादी कहलाना पसन्द नहीं करता है, क्योंकि हमारी प्राचीन परम्पराएं आज रूढ़िवादी का पर्याय बन चुकी हैं। इस परिस्थिति ने हमारे आहार-विहार तथा आचार-विचार को भी अछूता नहीं रम्वा । इसी सन्दर्भ में हमें अपने वर्तमान खान-पान एवं आचरण को देखना परखना है।
जैनधर्म में मनुष्य के आचरण की शुद्धता को विशेष महत्व दिया गया है। जब तक मनुष्य अपने आचरण को शुद्ध नहीं बनाता, तब तक उसका शारीरिक विकास महत्वहीन एवं अनुपयोगी है। मनुष्य के आचरण का पर्याप्त प्रभाव उसके स्वास्थ्य पर पड़ता है। विपरीत आचरण या अशुद्ध आचरण मानव स्वास्थ्य को उसी प्रकार प्रभावित करता है जिस प्रकार उसका आहार विहार । आचरण से अभिप्राय यहाँ दोनों प्रकार के आचरण से है -शारीरिक और मानसिक । शारीरिक आचरण शरीर को और मानसिक आचरण मन को तो प्रभावित करता ही है, साथ में शारीरिक आचरण मन को और मानसिक आचरण शरीर को भी प्रभावित करता है। इन दोनों आचरणों से मनुष्य की आत्मशक्ति भी निश्चित रूप से प्रभावित होती है। आचरण की शुद्धता आत्मशक्ति को बढ़ाने वाली और आचरण की अशुद्धता आत्मशक्ति का ह्रास करने वाली होती है। इसका स्पष्ट प्रभाव मुनिजन, योगी, उत्तम साधु और संन्यासियों में देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त ऐसे गृहस्थ श्रावकों में मी आत्मशक्ति की वृद्धि का प्रभाव दृष्टिगत हुआ है जिन्होंने अपने जीवन में आचरण की शुद्धता को विशेष महत्व दिया। ऐसे सन्त पुरुषों में महान आध्यात्मिक सन्त पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी आदि तथा गृहस्थ जीवन यापन करने वालों में महात्मा गाँधी, विनोबा भावे, गुरू गोपालदास जी वरैया, पं० चैन सुखदास जी न्यायतीर्थ आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
जैनधर्म का महत्व आध्यात्मिक एवं दार्शनिक दृष्टि से है। चिकित्सा की दृष्टि से उसका कोई महत्व नहीं है और न ही जैनधर्म में चिकित्सा के कोई निर्देशक सिद्धान्त निरूपित हैं। किन्तु चिकित्सा का सम्बन्ध मानव स्वास्थ्य से
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