________________
जैन सिद्धान्तों के सन्दर्भ में वर्तमान आहार-विहार २८९
प्रकृति और विकार के सन्दर्भ में कहा जाता है कि प्राणि संसार में मृत्यु हो प्रकृति है और जीवन विकार है। इस कथन को सार्थकता वस्तुतः आध्यात्मिक दृष्टि से अधिक है। लौकिक दृष्टि से विकार ( जोवन ) को प्रकृति आरोग्य है और आरोग्य का आधार शरीर है। शरीर का विनाश अवश्यंभावी है। अतः उसका अन्तिम परिणाम मृत्यु है। निष्कर्ष रूपेण दृष्टि की भिन्नता होते हुए भी लक्ष्य केवल एक ही रहता है। इसी प्रकार स्वास्थ्य साधन, शरीर रक्षा एवं आरोग्य लाम के समन्वित लक्ष्य हेतु जैन धर्म एवं आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की पारस्परिक दूरी होते हुए मो आंशिक रूपेण ही सही, बहुत कुछ निकटता एवं पारस्परिक एकता अवश्य है।
व्यवहारिक जीवन में प्रयुक्त किये जाने वाले सामान्य नियम कितने उपयोगी और स्वास्थ्य के लिए हितकारो होते हैं, यह उनके आचरित करने के बाद भली भांति स्पष्ट हो जाता है। एक जैन गृहस्थ के यहाँ साधारणतः इसका तो ध्यान रखा ही जाता है कि वह जल का उपयोग छानकर करे, सूर्यास्त के पश्चात् भोजन न करे, यथासम्भव गड़न्त वस्तुओं ( आलू, अरवी, आदि ) का उपयोग न करे, मद्यपान, धूम्रपान आदि व्यसनों का सेवन न करे, जो दस्तुएं दूषित या मलिन हों और जिनमें जन्तु आदि उत्पन्न हो गए हों, उनका सेवन न करे इत्यादि । स्वयं को अत्यधिक प्रगतिशील कहने वाले व्यक्ति भले ही जैन धर्म के उपर्युक्त नियमों को रूढिवादो, धर्मान्धतापूर्ण, थोथे एवं निरुपयोगी कहें, किन्तु स्वास्थ्य के लिए उनकी उपयोगिता को वैज्ञानिक आधार पर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता । जो नियम जीवन को सात्विकता की ओर ले जाकर जोवन ऊंचा उठाने वाले हों, शरीर की रक्षा और स्वास्थ्य का सम्पादन करने वाले हों, वे नियम केवल इसी आधार पर अवहेलना किए जाने योग्य नहीं है कि धार्मिक या सात्विक दृष्टि से ही उनका महत्व है।
__ आधुनिक विज्ञान के प्रत्यक्ष परोक्षणों द्वारा यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि जल में अनेक सूक्ष्म जीव एवं अनेक अशुद्धियाँ होती हैं । अतः जल को शुद्ध करने के पश्चात् ही उसका उपयोग करना चाहिये । जल को कुछ भौतिक अशुद्धियां तो वस्त्र से छानने के बाद दूर हो जाती हैं, कुछ जीव भी इस प्रक्रिया द्वारा जल से पृथक किये जा सकते हैं । अतः काफी अंशों में जल की अशुद्धि छानने मात्र से दूर हो जाती है और कुछ समय के लिए जल शुद्ध हो जाता है। किन्तु जल की शुद्धि वस्तुतः जल को उबालने से होती है। छने हए जल को अग्नि पर उबालने से जलगत सभी प्रकार की अशद्धियाँ दूर हो जाती हैं और जल पूर्ण शुद्ध होकर निर्मल बन जाता है। जैन धर्म मानव शरीर को जल सम्बन्धी समस्त दोषों से बचाने और शरीर को निरोग रखने की दृष्टि से शुद्ध, ताजे, छने हुए और यथासम्भव उबाल कर ठण्डा किए हए जल के सेवन का निर्देश देता है। क्या इस निर्देश और नियम को व्यवहारिकता अथवा उपयोगिता को अस्वीकार किया जा सकता है ?
गृहस्थ के व्यावहारिक जीवन को उन्नत बनाने हेतु तथा शरीर को स्वस्थ रखने के लिए शुद्ध ताजे और निर्दोष भोजन की उपयोगिता स्वास्थ्य विज्ञान द्वारा निर्विवाद रूप से स्वीकार की गई है। मानव जीवन एवं मानव शरीर को स्वस्थ, सुन्दर व निरोग रखने के लिए तथा आयु पर्यन्त शरीर को रक्षा के लिए निर्दष्ट, परिमित, सन्तुलित एवं सात्विक आहार ही सेवनीय होता है। आहार में कोई भी वस्तु ऐसी न हो जो स्वास्थ्य के लिए अहितकर अथवा रोगोत्पादक हो। अतः सदैव शुद्ध और ताजा भोजन ही हितकर होता है। आहार सम्बन्धी विधि विधान के अनुसार उचित समय पर भोजन करने का बड़ा महत्व है। जो लोग समय पर भोजन नहीं करते, वे अक्सर आहार एवं उदर सम्बन्धी व्याधियों से पीड़ित रहते हैं। आहार ( भोजन ) के समय के विषय में जैन धर्म का दृष्टिकोण अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यद्यपि यह तो निर्देशित नहीं किया गया है कि मनुष्य को भोजन किस समय कितने बजे तक कर लेना चाहिए, किन्तु उसकी मान्यता एवं दृष्टिकोण के अनुसार मनुष्य को सूर्यास्त के पश्चात् अर्थात् रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए । इसका धार्मिक महत्व तो यह है ही कि रात्रिकाल में भोजन करने से अनेक जीवों की हिंसा होतो है, किन्तु इसका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org