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________________ विदेशों में जैन धर्म का प्रचार-प्रसार डॉ० डी० के० जैन भिंड (म.प्र.) राजनीतिज्ञों ने सदैव अनुयायियों की संख्या के आधार पर समुदाय विशेष के महत्त्व और अधिकारों पर विचार किया है, पर अन्य क्षेत्रज्ञ इस आधार को मान्यता नहीं देते। उनके लिये समुदाय विशेष के महत्व का आधार यह है कि उसके आचार-विचारों ने मानव जाति के इतिहास, संस्कृति तथा सभ्यता को किस रूप में तथा कितना प्रभावित किया है। इस दृष्टि से उसकी क्षमता कितनी है ? यही कारण है कि भारत की जनसंख्या में ०.६ प्रतिशत की अल्पसंख्या होते हुए भी जैन समुदाय ने भारतीय दर्शन, विज्ञान, कला, पुरातत्व, साहित्य एवं राजनीतिक क्षेत्र में विविध युगों में महत्वपूर्ण योगदान किया है। यही नहीं, उसके अहिंसा सिद्धान्त को भारत तथा विश्व के अनेक देशों ने सत्याग्रह के रूप में प्रयोग कर स्वातन्त्र्य अजित किया और उसकी व्यापकता बढ़ाई। देश-विदेशों में जैन विद्याओं के महत्व का मान जैनों के माध्यम से नहीं, मुख्यतः जनेतर पाश्चात्यों के माध्यम से ही हुआ है। जैन तो अपने ज्ञास्त्रों को भंडारों में रखकर उनके दर्शन कर ही पुण्य लाभ लेने के आदी बने रहे । यह तो कुछ उदार व्यक्तियों की उत्साहपूर्ण प्रेरणा, कुछ अध्ययनशील साधुवर्ग, तथा शोधक विद्वानों के प्रयत्नों से यह सांस्कृतिक धरोहर यत्र-तत्र विकिरित हो सकी। इस विकिरण को स्रोतस्विनी के रूप में प्रभासित करने में देशविदेश के अनेक महानुभावों ने हाथ बटाया है। अन्य तत्वों के अलावा, इस साहित्यिक सामग्री ने जैनधर्म की प्रमावना में चार चाँद लगाये हैं। आज यह धारणा बलवती हो रही है कि इस विद्या का जितना प्रसार किया जावे, उतना ही प्रभावक होगा। जैन धर्म का प्रचार-प्रसार : एक सिंहावलोकन जैनधर्म आत्मधर्म है और व्यक्तिनिष्ठ है। अतः सैद्धान्तिक रूप से इसके प्रचार-प्रसार का कोई महत्व नहीं है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को कैसे प्रभावित कर सकता है ? फिर भी, जैन इतिहास के अवलोकन से लगता है कि विभिन्न सामाजिक एवं राष्ट्रीय परिवेशों में जैनों ने प्रभावना या प्रचार-प्रसार की व्यावहारिक महता स्वीकार की। जैन ग्रन्थों में इस हेतु प्रयुक्त अनेक विधाय वणित हैं। इस हेतु जैन समाज में अनेक प्रकार के धार्मिक उत्सवों को सार्वजनिक रूप में मनाने की परम्परा रही है। पर्युषण, अष्टाह्निका, अभिषेक एवं रथ यात्राओं के उत्सच सम्राट संप्रति के समय से चालू हैं। इसके अतिरिक्त, वेदी प्रतिष्ठा, पंचकल्याणक एवं गजरथ महोत्सव, विभिन्न तीर्थकरों के जन्मोत्सव व अन्य उत्सव भी जोड़े गये हैं। यह रूप धर्म की प्रतिष्ठा, प्रचार एवं प्रभावना में सदा सहायक रहा है । समंतभद्रं के अनुसार यह अज्ञान का नाश करने वाला है। इसी प्रकार, राज्या-श्रय पाना भी धर्मप्रचार और उसके महत्व का उत्तम साधन रहा है। भारत के अनेक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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