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पं० जगमोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[ खण्ड
(v) ऐसा प्रतीत होता है कि बीसवीं सदी का साधु वर्ग महावीर युग के आदर्शवाद और बीसवीं सदी के वैज्ञानिक उदारवाद के मध्य बौद्धिक दृष्टि से आन्दोलित है । वह अनेकान्त का उपयोग कर दोनों पक्षों के गुण-दोषों पर विचार कर तथा ऐतिहासिक मूल्यांकन से कुछ निर्णय नहीं लेता दिखता। मघु सेन' ने मध्यकाल की जटिल स्थितियों में निशीथ चूर्णिकारों के द्वारा मूल सिद्धान्तों की रक्षा करते हुए जो सामयिक संशोधन एवं समाहरण किये हैं, इनका विवरण दिया है। इसे एक हजार वर्ष से अधिक हो चुके हैं। समय के निकष पर जैन साधु के व्यवहारों व आचारों को कसने का अवसर पुनः उपस्थित है । साधुवर्ग से मार्ग निर्देशन की तीव्र अपेक्षा है ।
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निर्देश
१. मधु, सेन, ए कल्चरल स्टडी आव निशीथ चूणि, पाखं० विद्याश्रम, काशी, १९७५, तेज २७७ - २९० । २. मुनि, आदर्श ऋषि, बबलते हुए युग में साधु समाज, अमर भारती, २४, ६, १९८७ पेज ३२ | ३. साध्वी, चंदनाश्री ( अनु० ); उत्तराध्ययन, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, १९७२, पेज १४५ ।
४. वही, पेज ४६७ ।
५. आचार्य वट्टकेर; मुलाचार -१, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९८४, पेज ५ ।
६. आचार्य कुंदकुंद; अष्ट पाहुड चारित्र प्राभूत, महावीर जैन संस्थान, महावीर जी, १९६७ पेज ७७ :
७. आचार्यं विद्यानंद तीर्थंकर, १७,३-४, १९८७ पेज १९ ।
८. सौमण्यमल जैन; अमर भारती, २४, ६, १९८७ पेज ७२ ।
९. देखिये निर्देश, ७ पेज ६ ।
१०. उपाध्याय, अमर मुनि; अमर भारती, २४, ९, १९८७ पेज ८ ।
११. आचार्य वट्टकेर; मूलाचार - २, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९८६ पेज ६८ ।
१२. उपाध्याय अमर मुनि; 'पण्णा समिक्खए धम्मं -२', वीरायतन, राजगिर, १९८७ पेज १०० ॥ १३. पंडित आशाधर; अनगार धर्मामृत, मा० ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९७७, भू० पेज ३६ । १४. देखिये निर्देश १२ पेज १६ ।
सिद्ध पुरुष पुरातत्वज्ञ के समान होता है जो युगों-युगों से धूलि -धूसरित पुराने धर्म-कूप की - धूलि को दूर कर लेता है। इसके विपर्यास में, अवतार, अहंत या तीर्थकर एक इंजीनियर के समान होता है जो जहाँ पहले धर्मकूप नहीं था, वहाँ नया कूप खोदता है ।
संतपुरुष उन्हें ही मुक्तिपथ प्रदर्शित करते हैं, जिनमें करुणा प्रच्छन्न होती है पर अर्हत उन्हें भी मुक्तिपथ प्रदर्शित करते हैं जिनका हृदय रेगिस्तान के समान सूखा एवं स्नेहविहीन होता है ।
- रोबर्ट क्रोस्बी
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