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________________ थी। उनकी मृत्यु के साथ एक युग समाप्त हो गया। आप सबके ऊपर से दोनों बड़े महासती जी का साया उठ गया। अब आप सब पर पूरी जवाबदारी आ गई है। इस जवाबदारी को निभाने के लिए वीर प्रभु आप सबको शक्ति प्रदान करें। पू. महासती जी की अस्वस्थता के कारण आप सभी को लम्बे समय तक मद्रास में ठहरना पड़ा था। साहस रखें। छोटी सतियां जी की शिक्षा का विशेष ध्यान रखे। पू.महासती जी के थोड़े समय में दो बार अंतिम दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, इससे मन को संतोष है। महासती जी को हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित * * * * * स्मृति ही शेष है • माणकचन्द दुग्गड़ मुकटी (महा.) इतिहास कांच के टुकड़ों का नहीं हीरों का बनता है। इतिहास घास के तिनकों का नहीं तारों का बनता है। जीवन के संग्राम में जीने वालों इतिहास कायरों का नहीं वीरों का बनता है। इस धरती पर वीर पुरुष ही नाम अमर कर जाते है, कायर नर तो जीवन भर बस रो रोकर मर जाते हैं। श्रद्धांजलि उन्हें समर्पित की जाती है जो संसार में आकर कुछ कार्य करे। पाप के भयंकर दावानल से जलती हुई दुनिया को शांति प्रदान करने के लिए ही महान विभूतियों का जन्म इस अवनि पर होता है। संतों के रूप में संसार को सर्वोत्तम उपहार मिलता है। संतों की जगमगाती जीवन ज्योति जगत को नवजीवन प्रदान करती है। शांति की निर्मल मंदाकिनी प्रवाहित करने वाले महापुरुष विनाश की ओर तेजी से भागने वाली दुनिया को सावधान करने वाले लाल प्रकाश स्तम्भ है। विश्व में प्रतिदिन अनेक व्यक्ति जन्म लेते हैं और मरते हैं। कौन किसको जानता है। यो ही आये कुछ दिन रहे, भोग वासना, सुख-दुःख की अंधेरी गलियों में ठोकरे खाकर एक दिन चले गये। जिनका हंसना, रोना प्रथम तो अपने तक ही रहा, यदि आगे बढ़ा तो गिने-चुने परिवार के लोगों तक, किन्तु महान विभूतियों का जन्म मरण सूर्य की तरह तेजस्वी होता है जो जन्म से लेकर अन्त तक संसार को अपने दिव्य प्रकाश से प्रकाशित करते हैं। ऐसे ही हमारे गुरुवर्या अध्यात्मयोगिनी स्व. श्री कानकुवंरजी म.सा. थे। भाद्र कृष्णा अष्टमी वि.स. १९६८ में इस अवनि पर आपने जन्म लेकर गुरु स्वामी श्री हजारीमल जी म.सा. तथा गुरुणी भैया महासती श्री सरदारकुवंरजी म.सा. के द्वारा बताये हुए पथ पर चल करके अपने सुमधुर प्रवचनों के द्वारा अनेक जीवों का उद्धार करते हुए आत्म लक्ष्यी विदुषी महासती जी ने इस लोक की जीवन यात्रा पूरी की । वे शरीर से भले ही हमारे बीच न हों परन्तु आज भी उनकी समृति हमारे बीच बनी हुई है। अब उनकी समृति ही शेष रह गई है। (४८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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