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________________ तप के साथ अपनी पवित्र भावना भी बननी चाहिये तभी कल्याण हो सकता है अन्यथा केवल भूखे मरना ऋषियों ने अपनी वाणी में इस प्रकार बताया है । “ कषायां विषयांहाराणां, त्यागो यत्र विधिपते उपवासः सविज्ञेयः शेष लंघनकं विंदुः” " कषाय, विषय, आहार त्याग हो उसे तप समझना चाहिए अन्यथा केवल लंघन मात्र है अतः जीवन में जागरूकता की आवश्यकता है तथा इसी से जीवन की कठिनाइयों को पार किया जा सकता है। "यद् दुस्तरं यद् दुरापं यद् दुर्गम पच्च दुष्करम् सर्व तुतपता साध्यं तपो हि दुरुति क्रयम् ॥ जो दुर्गम और दुष्कर, जिसे प्राप्त करना कठिन है वह भी तप के द्वारा सिद्ध किया जा सकता है। निश्चित तप के प्रभाव से सब कठिनाइयों को पार किया जा सकता है। द्वारिका का विनष्ठ तप के खंडित होने से हुआ था - रात्रि भोजन छोड़ने पर आधे दिनों का तप हो जाता है जैसे एक माह तक रात्री भोजन त्याग से १५ दिन की तपस्या हो जाया करती है। तप निष्कपट भाव से होना चाहिये अन्यथा मल्लीनाथ की तरह स्थिति बन जाती है क्योंकि उन्होंने कपट व्यवहार से तप किया था अतः निष्कपट भाव से तप ही सही कर्मों की निर्जरा में सहायक हो जाता है। तप करने से तो कर्मों की निर्जरा होती है किंतु तप की अनुमोदना से भी अच्छा प्रतिफल मिल जहा तवस्ती घुणतेतवेण कमं ताजाण तवोऽणुमंता जाता है। वृहदकल्पभाष्य जिस प्रकार तपस्वी तप के द्वारा कर्म को घुन डालता है वैसे ही तप का अनुमोदन करने वाला भी निर्जरा कर सकता है। जिस प्रकार हंस दूध और पानी को अलग अलग करता है उसी प्रकार तप आत्मा और कर्म के आवरण को अलग अलग कर देता है। जैन धर्म में तप के अनेक भेद बताये गये जैसे उवई सूत्र में कुल ३५४ भेद है किंतु मोटे रूप से भेद इस प्रकार है। सोतवो दूविहो वुतो बाहिरब्धंतरोतहा बाहिरो छ:व्वि हो वुता एवमव्यतरो तव इस प्रकार भगवान महावीर ने तप से मुख्य दो भेद किया बाह्य तप के ६ भेद इस प्रकार है । Jain Education International (२४२) For Private & Personal Use Only (१) बाह्य तप (२) आभ्यंतर तप www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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