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इस लोक संबंधी सुखों की कामना से तपस्या नहीं करें, परलोक में प्रचुर वैभव और उतमोतम भौतिक सुखों की चाहना रखकर तप नहीं करे, अपनी प्रशंसा हो इस भावना से, कीर्ति की लालसा से, जनता में यशोगान करवाने और धन्यधान्य कहलाने के लिये तप नहीं करे, किंतु केवल एक मात्र अपने कर्मों को निर्जरा लिये तपस्या ही करे।
और भी इस प्रकार बताया गया है:
विविहगुणतवोरए णिचं, भवइ निरासएणिज्जरठिए अर्थात मोक्षार्थी को मन में इहलौकिक और पारलौकिक सुखों की आशा नहीं करते सदैव तप समाधि में संलग्न रहे और विविध गुणों से युक्त तप में निरतंर लगा रहे जिस प्रकार उत्तम फल की प्राप्ति के लिये भूमि भी उत्तम होनी चाहिये उत्तम भूमि में ही उत्तम फल का बीज अंकुरित होता है और फलता फूलता है उसी प्रकार तप के यथार्थ फल के लिये मनरूपी क्षेत्र विशुद्ध करना चाहिये। तभी कर्मों का क्षय होकर मोक्ष फल की प्राप्ति होती है। अर्जुन माली एवं धन्नाअनगार की तरह तप करने से मुक्ति की प्राप्ति हो सकती है।
जस्सवि अदुष्पाणि हि आहोतिकषायातवं चरंतस्स सोबाल तवस्सीवि वगयण्हाण परिस्समं कुणई
• आचार्य भद्रबाहु जिस तपस्वी ने कषायों को निगृहित नहीं किया वह बाल (अज्ञानी) तपस्वी है उस तपस्वी का कार्यक्रम हाथी के स्नान की तरह निर्थरक है। जैन दर्शन अज्ञान तप को स्वीकार नही करता है।
"नहु बाल तवेण मुक्सुति
• भद्रबाहु बाल तप से कभी मुक्ति नहीं मिलती है। बाल तप से कर्मों की निर्जरा नहीं होती है।
जं अनाणी कम्मं खवेई, बहुयाहिं वाताकोडिहि
तंनाणि तिहिं गुतो, खवेई उसास मितेणं हजारों वर्षों तक तप करने पर भी अज्ञानी जितने कर्मों को क्षय नहीं कर पाता उतने कर्मों को एक ज्ञानी कुछ ही समय में नष्ट कर देता है। अत: तप करने में इस बात का ध्यान रखाना चाहिये।
निर्दोष निर्विदानाढयं तंमिर्जरा प्रयोजनम्
चितोत्साहेन् सद् बुद्धया तपनीयतः शुभम् निर्दोष कामना रहित केवल निर्जरा के लिये सद्वद्धि के साथ दिल के उत्साह से तप करना शुभ एवं प्रशस्त तप माना गया है।
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