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मोहिनी का रूप बनाया और हावभाव करती हुई वह उपसुन्द के पास पहुँची। उपसुन्द मोहिनी को देखते ही उस पर मोहित हो गया। परंतु सुन्द ने ज्यों ही मोहिनी को देखा वह भी उस पर आसक्त हो गया। दोनों भाइयों में मोहिनी को पाने के लिये तू-तू, मैं-मैं होने लगी। मोहिनी कभी सुन्द के सामने जा खड़ी होती, कभी उपसुन्द के सामने। अब तो दोनों भाइयों में लड़ाई छिड़ गई। जब दोनों ने देखा कि दोनों में से कोई भी नहीं मान रहा है, तब उन्होंने अपने वरदान का उपयोग करना ही ठीक समझा। बस सुन्द ने उपसन्द के मस्तक पर और उपसन्द ने सन्द के मस्तक पर हाथ रखा कि दोनों ही एक साथ भस्म हो गए। मोहिनी ने अपनी माया समेट ली। अब देखा कि मारक बुद्धि वाला अपनी बुद्धि रूपी वरदान का उपयोग दूसरों के विनाश में करता है, तो दूसरा भी उसका नाश कर देता है या उसका अपना ही सर्वनाश स्वयमेव हो जाता है।
वैज्ञानिकों की मारक बुद्धि ने लाखों मनुष्यों का संहार करने के लिए अणुबम, हाईड्रोजन बम, नाईट्रोजन तथा अन्य भयंकर प्रक्षेपणास्त्र, टैंक, मशीनगन, रडार, राकेट, आदि बनाकर अपने विनाश को न्यौता दे दिया है। अमेरिका ने वैज्ञानिकों से अणुबम बनवाकर जापान के दो शहरों हीरोशिमा और नागासाकी पर बरसाए। लाखों मनुष्यों को मौत के घाट उतार दिया, लाखों प्राणियों का संहार किया और करोड़ों की सम्पत्ति नष्ट कर दी। सारी ही बस्ती खैदान मैदान कर दी। जो मनुष्य बचे वे भी अंग विकल, बीमार और दु:खी होकर जिदंगी की सांस ले रहे हैं। यह था अमेरिका की मारक बुद्धि का उपयोग। इस प्रकार के भीषण नर संहार से क्या मिला? बुद्धि का दिवाला ही तो उसने निकाला। आत्मा के लिये तो अमेरिका के मांधाताओं ने विनाश के ही बीज बोए।
इन्हीं दोनों बुद्धियों को हम क्रमश: सुबुद्धि और कुबुद्धि कह सकते हैं। ये ही इस चेतन की दोनों पलियाँ हैं। सुबुद्धि धर्म की ओर ले जाती है और कुबुद्धि पाप की ओर। कुबुद्धि का हृदय काला होता है, कृष्ण लेश्यावाला और सुबुद्धि का हृदय स्वच्छ स्फटिक जैसा होता है, शुभ लेश्याओं वाला। कुबुद्धि ममता की जननी है और सुबुद्धि है समता की जननी। 'रामचरितमानस' में महात्मा तुलसी कहते हैं - 'जहाँ सुमति, तहाँ सम्पत्ति नाना। जहाँ कुमति, वहाँ विपति निदाना।' जहाँ कुबुद्धि का राज्य है वहाँ बेचारी सुबुद्धि को कौन पूछता? कुबुद्धि पौगालिक धन बढ़ाती है लेकिन उसके बढ़ाये हुए धन में सर्वनाश का बीज छिपा रहता है। जबकि सुबुद्धि ज्ञान धन बढ़ाती है, जिसका कभी दीवाला नहीं निकलता, जो अक्षय रहता है। कुबुद्धि मनुष्य के दिल से दया, करुणा, सेवाभावना, स्वार्थ त्याग आदि को निकालकर उसे हत्यारा और स्वार्थी बना देती है, अन्यायी अत्याचारी भी बना देती है। निर्गुण संत कवि कबीर कह उठते
कबीर! कुबुद्धि संसार के घट-घट मांहि अड़ी।
किन-किन को समझाइए कुवै भांग पड़ी। संसार में कोई भी ऐसा पाप नहीं, जिसे कुबुद्धि नहीं करा बैठती है। वह पाँच इंद्रियों में विषम भाव लाती है। इसके फंदे में फंस कर मनुष्य सभी प्रकार के दुर्व्यसनों-चोरी, जारी, शराब, मांसाहार, वेश्यागमन, शिकार आदि तथा समस्त दुर्गुणों-लाभ, अभिमान, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, क्रोध, छल दम्भ आदि को अपनी लेता है कुबुद्धि के चक्कर में पड़कर आत्मा असंख्य जन्मों तक अनेक योनियों में भटकती . फिरती है जहाँ उसे सद्बोध मिलना दुष्कर होता है। किसी कवि का मानना है -
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