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________________ पू.म.सा. ने प्रसन्नतापूर्वक कहा-“तुम हमारे साथ रह सकती हो और जो भी सीखना चाहती हो सीख सकती हो।” म.सा. का उत्तर सुनकर मैं आनंद विभोर हो गई। इसके पश्चात मैं अपने घर गई और अपने माता-पिता को बताया कि मैं म.सा. के पास रहकर कछ ज्ञान-ध्यान सीखना चाहती हैं। मेरी बात को सुनकर माता जी ने कहा- तू जो भी सीखना चाहती है, म.सा. के पास रहकर सीख ले। किन्तु घर पर आती जाती रहना। __माता-पिता की आज्ञा मिलने पर मैं म.सा. के पास आ गई। यहां आकर मेरा धार्मिक अध्ययन आरम्भ हो गया। आपश्री के सान्निध्य में मेरा अध्ययन तो हुआ ही साथ ही आपने मुझे जीवन में कुछ करने की कुछ बनने की भी प्रेरणा दी। मैं लगभग डेढ़ वर्ष तक म.सा. की सेवा में रही। इसमें से आधा समय तो घर जाने आने में ही व्यतीत हो जाता। एक दिन म.सा. ने मुझसे पूछा-“तुझे यह संसार कैसा लगता है? क्या तुम इस संसार से सम्बन्ध जोड़ना चाहती हो?" मैं म.सा. के प्रश्न का अर्थ नहीं समझ पाई। मैंने उन्हीं से पूछा-“यह संसार कैसा हैं? इस संसार से कैसा सम्बन्ध रखना है?" “यह संसार झूठे रिश्ते नाते को अपनाता है। सभी को मेरा और तेरा कहता है। हमें इस संसार से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखना है। यह संसार भयंकर दावानल है। जो इसमें फंसता है, वह वही भस्म हो जाता है।” म.सा. ने बताया। म.सा. का कथन सुनकर मैं घबरा गई और पूछा-“जब इसमें सब भस्म हो जाते है, तो क्या मैं भी भस्म हो जाऊंगी या?" “नहीं, सब भस्म नहीं होते। अनेक महापुरुष ऐसे हुए है जिन्होंने अपना जीवन सफल बनाया है। हम भी उन महापुरुषों के बताये मार्ग पर चलकर, उसका अनुसरण करके अपने जीवन को सफल बना सकते है।" म.सा. ने कहा। “हम अपना जीवन किस प्रकार सफल बना सकते है?” मैंने पूछा। “अपना सारा जीवन परोपकार की भावना में व्यतीत करना है। इस संसार से निकल कर भगवान महावीर के बताये मार्ग पर चलना है। जैसे हम चल रहे हैं।” म.सा. ने बताया। - क्या ऐसा करने से मेरा जीवन सफल हो जावेगा?” मैंने पुनः प्रश्न किया। _ क्यों नहीं होगा? जब तक हम कर्म का क्षय करने के प्रयास में लगे रहेगे, अपने समस्त कर्मों का क्षय कर देंगे, तो हमारा जीवन सफल हो जावेगा।" म.सा. ने बताया। इसके पश्चात म.सा. ने संसार कः असारता के सम्बन्ध में कुछ विस्तार से बताया। म.सा. की वाणी सुनकर मुझे संसार से विरक्ति हो गई। मैंने म.सा. के समक्ष निवेदन किया-“म.सा. मैं भगवान महावीर के बताये पथ को अपनाना चाहती हूँ। इसके लिये मुझे क्या करना है? कृपया मार्गदर्शन प्रदान करने का कष्ट करें।" “इसके लिये सर्वप्रथम तुम्हें, अपने माता-पिता से आज्ञा प्राप्त करनी होगी। उसके पश्चात ही तुम इस मार्ग को अपना सकती हो।” म.सा. ने बताया। (२८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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