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— अपने ग्रंथ की निर्विघ्न समाप्ति होने के लिये शास्त्रकार मंगलाचरण की रचना करते हैं। श्री हेमचंद्राचार्य ने भी इसी परंपरानुसार ग्रंथ के आरंभ में लिखा हैः।
प्रणम्य परमात्मानं श्रये: शब्दानुशासनम्।
आचार्य हेमचंद्रेण स्मृत्वा किंचित प्रकाश्यते॥ अर्थात कुछ याद करने के बाद परमात्मा को प्रणाम करके श्री हेमचंद्राचार्य श्रेयकारी शब्दानुशासन को प्रकाशित करते हैं। इस ग्रंथ में सूत्रों द्वारा व्याकरण की चर्चा की गई है। प्रथम सूत्र है “अर्हम्”। यह शब्द एक अय्यय है और जैन परंपरा में प्रसिद्ध है। यह परमेश्वर का वाचक शब्द है। किंतु इस शब्द द्वारा मात्र जैन परंपरा का ही बोध नहीं मिलता है। व्याकरण कोई खास संप्रदाय विशेष का ग्रंथ नहीं है किंतु संस्कृत या प्राकृत सीखने वाले समस्त छात्रों के लिये लिखा गया है। इस दृष्टि बिंदु को स्पष्ट करने के लिये श्री हेमचंद्र प्रारंभ में कहते हैं कि 'अर्हम्' का 'अ' विष्णुका वाचक है। 'र' द्वारा ब्रह्म का ख्याल मिलता है। 'ह' महादेव का वाचक है और 'म्' अर्थात * अर्धचंद्रकार संज्ञा निर्वाण का सूचक है। आचार्यजी के शब्दों में इस बात को व्यक्त करने के लिये लिखा है।
अकारेण उच्यते विष्णुः रेझे ब्रह्मा व्यवस्थितः।
हकारेण हरः प्रोक्तः तदंते परमं पदम्॥ इस व्याकरण ग्रंथ में कुल आठ अध्याय है। प्रथम सात अध्यायों में संस्कृत भाषा का व्याकरण लिखित है और अंतिम अध्याय में प्राकृत भाषा का व्याकरण लिखा गया है।
प्रथम अध्याय में संज्ञा, स्वरसंधि, व्यंजन संधि, नाम के विभक्ति के रूपों की निष्पत्ति आदि के लिये २४१ सूत्र रचित है। दूसरे अध्याय में नाम के विभक्ति के रूपों की चर्चा आगे चलती है। विभक्ति का कहां और किस अर्थ में प्रयोग होता है इसकी चर्चा ४६० सूत्रों में की गई है। तीसरे अध्याय के ५२१ सूत्रों में समास, क्रियापद के रूप आदि की चर्चा है। चौथे अध्याय के ४८१ सूत्रों में क्रियापदों की चर्चा की गई है। पांचवें अध्याय के ४९८ सूत्रों में कृदंत की चर्चा है। छठवें अध्याय में ६९२ सूत्रों में तद्धित प्रकरण की चर्चा है और सातवें अध्याय में तद्धित की चर्चा के बाद संस्कृत भाषा का व्याकरण समाप्त होता है। आचार्यजी की निरूपण पद्धति परिचय प्राप्त करने के लिये कुछ उदाहरण देखें।
१) एक-द्वि-त्रिमासा ह्रस्व-दीर्घ-प्लुताः। जिस स्वर का उच्चारण करने में एक मात्रा का समय लगे उसको ह्रस्व दो मात्रा का समय लगे उसको दीर्घ और तीन मात्रा का समय लगे उसको प्लुत स्वर कहते
२) कादिः व्यंजनम्। 'क' और 'ह' के बीच में आने वाले वर्ण व्यंजन कहे जाते है। कुल ३३ व्यंजन हैं। पाणिनि ने कादयो मावसानाः स्पर्शाः सूत्र द्वारा 'क' से 'म' तक के व्यंजनों को स्पर्श व्यंजन की संज्ञा दी है।
३) आद्य-द्वितीय-शाषसा अघोषाः। प्रति वर्ग के प्रथम और श, ष, स, अर्थात क, च, ह, त, प, एवं ख, छ, ठ, थ, फ, तथा श, ष, स, ये तेरह अघोष या कठोर व्यंजन है।
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