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________________ हेमचंद्राचार्य और उनका सिद्धहेम में व्याकरण प्रो. अरुण जोशी आज से करीब आठ सौ वर्ष पहले का गुजरात सुख, समृद्धि और संस्कारिता के त्रिवेणी संगम का स्थान था। उस वक्त गुजरात में सोलंकी युग प्रवर्तित था । सिद्धराज जयसिंह तथा कुमारपाल जैसे यशस्वी नरपतियों ने अपनी कर्तव्य निष्ठा से गुजरात को सुवर्णकाल का परिचय कराया था। इन दोनों नरपतियों को जिसने ज्ञानदृष्टि प्रदान की, वे राजगुरु कलिकाल सर्वज्ञ नाम से ख्याति प्राप्त आचार्य हेमचंद्राचार्य थे। . हेमचंद्राचार्य का जन्म अहमदाबाद के निकट धंधुका शहर में मौढ़ वणिक जाति में हुआ था। उनके पिता का नाम चाचदेव या चाचिग था और माता का नाम पाहिणीया चाहिणी था। ई.स. १०८८ अर्थात वि.सं. ११४५ की कार्तिक पूर्णिमा को उनके युगप्रवर्तक पुत्र का जन्म दिन था। शैशव में उनका नाम चांग था। शास्त्रवेत्ता तेजस्वी जैनचार्य देव चंद्रसूरि से उचित वय प्राप्त करने के बाद चांग को दीक्षा प्राप्त हुई। तत्पश्चात् चांग का नाम सोमचंद्र रखा गया । विद्याभ्यास पूर्ण होने पर जब आचार्य की पदवी प्राप्त हुई तब वे हेमचंद्राचार्य नाम से प्रसिद्ध हुए । चोर्यासी (८४) वर्ष की जीवनयात्रा दरम्यान उन्होंने जिस साहित्य की साधना की। उस में संबंध में सोमप्रभाचार्य ने लिखा है। क्लृप्तं व्याकरणं नवं, विरचितं छंद्रोनवं द्वयाश्रयालंकारौ प्रथितौनवौ, प्रकटितं श्री योगेशास्त्रं नयम्। तर्क: संजनितो नवो, जिनवरादीनां चरित्रं नवं बद्धं येन, न केन केन विधिना महिः कृत दूरतः॥ अर्थात नया व्याकरण बनाया, नया छंदशास्त्र रचा, द्वयाश्रय महाकाव्य और अंलकार शास्त्र को विस्तृत किया और नूतन स्वरूप से प्रकट किया। श्री योगशास्त्र को जन्म दिया, जिनवरों के चरित्रों को ग्रंथ बद्ध किया। किन किन प्रकार से श्री हेमचंद्राचार्य ने अज्ञान का नाश नहीं किया है ? । Jain Education International इस श्लोक में जो नया व्याकरण का उल्लेख हुआ है वही सिद्धहेम है । उसको शब्दानुशासन भी कहा जाता है। सिद्धराज ने जब मालवा पर आक्रमण किया था तब वहां से विजय उपरांत भोज का 'सरस्वती कंठाभरण' नामक व्याकरण प्राप्त हुआ था। मालवा में लिखित भोज के व्याकरण से अधिक सुंदर व्याकरण गुजरात में लिखा जाय ऐसी सिद्धराज की कामना थीं, जो श्री हेमचंद्राचार्य ने पूरी की। मात्र एक वर्ष के सीमित काल में उन्होंने व्याकरण ग्रंथ रचना करके उसका नाम 'सिद्धहेम' रखा। इससे सिद्धराज और हेमचंद्र ये दोनों अमर हो गये। इस ग्रंथ हाथी पर सुवर्ण की थाली में रखकर पाटण नगर में दबादबापूर्वक सम्मानपूर्वक प्रदर्शित किया गया था। संस्कृत और प्राकृतभाषा के लिये लिखित ऐसा समर्थ व्याकरण हेमचंद्र के बाद लिखने का साहस अब तक किसी ने नहीं किया है। (२२४) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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