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________________ उनकी गौरवमय शिष्या समुदाय में चार चांद लगाने वाले पूज्या चम्पाकुंवरजी म.सा. एक विदुषी महासती थी। आगम, स्तोकों एवं ढालों के प्रति अपार निष्ठा एवं गहरी रुचि थी। उनमें श्रमणाचार के प्रति सजगता एवं जागरुकता थी। अपनी शिष्याओं को भी निरन्तर जागरुक रहकर संयम साधना में प्रगति करने की पवित्र प्रेरणा प्रदान करती थी। ___ यह किसी ने भी नहीं सोचा था कि सद्गुरुणी श्री कानकुंवरजी म.सा. एवं उनकी शिष्या श्री चम्पाकुंवरजी म.सा. का राजस्थान में पुनः आगमन नहीं हो सकेगा। विधि की विडम्बना है। मात्र पाँच महीने के अन्तराल में दोनों महान् विभूतियों का दिवंगत होना समग्र जैन समाज के लिए एक अपूरणीय क्षति है। उन्होंने नश्वर देह को भले ही त्याग दिया हो लेकिन वह स्मृतियों में जीवित है और जो स्मृतियों में जीवित रहते हैं, वह अमर बन जाते हैं। ___ अन्त में दिवंगत आत्माओं को अखण्ड आत्मिक आनन्द की प्राप्ति हो, इसी मंगल-कामना के साथ उनके श्री चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित करती हूँ। • महासती श्री उमरावकुंवरजी म, 'अर्चना' की शिष्या हृदय मंदिर की आराध्या • महासती श्री कंचनकुवंर म., मद्रास सागर की उत्ताल तरंगों को चीरकर नाव को मंजिल तक पहुंचाने का लक्ष्य लिये नाविक सावधानी के साथ सतत-परिश्रम कर नाव को आगे बढ़ाता है। मेरी जीवन नैया भी संसार सागर की तरंगों में डोल रही थी। ऐसी विकट स्थिति में पू. गुरुणीजी सरल हृदया श्री कानकुंवरजी की शिष्या परमश्रद्धेया, परोपकारिणी, अध्यात्म योगिनी, गुरु बहन, परम विदुषी महासती श्री चम्पाकुंवरजी म. सा. ने अत्यन्त कृपा कर पतवार थाम कर मंजिल तक पहुंचाने का उपक्रम प्रारम्भ कर मुझे उपकृत किया। पू. श्री के चरणों में कोटिशः वंदन। मूर्तिकार छैनी और हथौड़े की मार से पाषाण कोभी प्रतिमा बनाकर पूजा योग्य बना देता है। पू. श्री के सानिध्य में धर्म के मर्म को समझने के अनेक अवसर प्राप्त हुए। सतत् प्रेरणा पाकर मेरा जीवन पुष्प भी पल्लवित हो उठा। धन्य है उस मूर्तिकार को। सांसारिक प्रलोभनों की भल भलैय्या में भटके प्राणियों के लिए करुणाशील मन ही पथ प्रदर्शक बनता है। पू. श्री ने शास्त्रों तथा थोकड़ों के माध्यम से शूलों को फूलों में बदलने के निरन्तर प्रयास से मार्ग प्रशस्त हुआ। चौदह वर्षों से बने साया ने अचानक विरह की वेदना भर दी। भगवान महावीर स्वामी ने अपने अनन्य शिष्य गौतम स्वामी को अपने अंतिम क्षणों में अपने से दूर भेज दिया था। वही बात पू. श्री ने भी अपनाई। काफी समय से कुछ साध्वियों को धर्म प्रचार हेतु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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