SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भावभीनी श्रद्धाञ्जलि . साध्वी श्री हेमप्रभा भारतीय संस्कृति में संत जीवन को एक आदर्श रूप में माना जाता है। संयम और संस्कृति की धाराओं में प्रवाहमान संत जीवन व्यक्ति, समाज राष्ट्र एवं समस्त मानवता के लिए वरदान रूप सिद्ध होता है। किसी भी महापुरुष अथवा सन्त के जीवन को जब कभी हम अपने सन्मुख लाते हैं, तो ऐसा मालूम पड़ने लगता है। मानों इन्द्रधनुषी-वर्णों के सुरभित सुमन की एक रमणीय वाटिका हमारे सामने साकार हो उठी है और जिस प्रकार उन रंग बिरंगे फूलों की सुगन्ध से किसी भी मनुष्य का मन आनन्द विभोर हो उठता है, ठीक उसी तरह महापुरुषों के गुण रूपी फूलों की सुगन्ध भी मन की वृत्तियों में पवित्र आनन्द की चल-लहरी सी प्रवाहित कर देती है। वस्तुत: सौरभ की भांति महान् गुणों को भी केवल अनुभूत किया जा सकता है। उस स्थिति में मनुष्य की कलुषित भावनाएँ शान्त हो जाती है और मन पवित्र चल लहरी को आत्मसात करते हुए निरन्तर आगे बढ़ता है। वस्तुत: ऐसा पावन धवल और निर्मल जल का ही पर्याय होता है एक साधक का जीवन। सन्त इस संसार में फूलों की वर्षा करने के लिये, अमृत बांटने के लिये तथा अपने जीवन को मांजते हुए अपनी आत्मा और विश्व दोनों का कल्याण करने के लिये आते हैं - कहा भी है : "संत तो समाज के कंटक उठाने को आते हैं, मोक्ष के साधन जग हेतु जुटाने को आते हैं। बड़ी साधना से जो कुछ भी पाते हैं जीवन में, उसे भी मुस्कराकर लुटाने को आते हैं। हमारे सरल हृदया वयोवृद्धा पूज्या महासतीजी स्व. श्री कानकुंवरजी म.सा. एवं स्व. विदुषी महासतीजी श्री चम्पाकुंवरजी म. सा. नें अपने संयमी जीवन के सुदीर्घ काल में समाज को बहुत कुछ दिया। स्वभाव में सरलता, व्यवहार में नम्रता, वाणी में मधुरता मुख-कमल पर सौम्यता, नयनों में तेजस्विता, समता, सहिष्णुता आदि गुणों के कारण उनका व्यक्तित्व गौरवपूर्ण गरिमा से चमक उठा था। अस्वस्थ होते हुए भी आपका एक भी क्षण प्रमाद में व्यतीत नहीं होता था। सतत् जप, तप, मौन साधना में तल्लीन रहते थे। __ श्रद्धया कानकुंवजी म.सा. हमारे गुरुवर्या श्री उमरावकुंवरजी म.सा. 'अर्चना' की गुरु बहिन थी। समय-समय पर श्रद्धेया गुरुवर्या श्री हमें उनके जीवन से सम्बन्धित अनुभव सुनाया करते हैं। मुझे भी आपश्री के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ हैं। मैंने अनुभव किया कि वे जहां फूल से कोमल थे, वहीं अपनी संयम साधना में वज्र से कठोर भी थे। हजारों मीलों की पद यात्रा कर आपने वीतराग प्रभु महावीर की वाणी का प्रचार-प्रसार किया। अनेक पथ भूलें राहियों को पथ दिखलाया। अपने सदुपदेशों के द्वारा अनेक धर्मान्धों के हृदय में धर्म की ज्योति जगाकर अडिग आस्था एवं निष्ठा प्रदान की। (२४) ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy