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________________ वि. स. २००५ पौष शुक्ला दसमी के दिन आपने अध्यात्मयोगिनी शांतस्वभारी गुरुणी श्री कानकुंवरजी म.सा. के पास दीक्षा अंगीकार करके ज्ञान दर्शन - चारित्र की आराधना की । पू. महासतीजी एक अद्भुत और अद्वितीय विभूति थी। बड़े ही शांत, दांत गंभीर और मधुर प्रकृति वाली थी । चरित्र निष्ठा, प्राणो की दृढ़ता और भावों की भव्यता थी। उनका चेहरा इतना सौम्य और रसिक था कि देखने वालों को आत्म तृप्ति की अनुभूति होती थी। उनमें बालक सी निश्चलता, युवक सी कार्यदृढ़ता, प्रौढ़ सी गंभीरता और वृद्ध सी अनुभव गरिमा थी । जिन्होंने अपने ज्ञानबल ध्यानबल, चरित्रबल और तपबल से जिनशासन की शोभा में अभिवृद्धि करने, पर कल्याण के साथ-साथ अपने आपको ऊर्ध्वगामी बनाकर विकास प्राप्त किया था। उनके जीवन में वैराग्य का स्रोत बह रहा था। रोम रोम में रत्नत्रय का रणकार था । श्वास श्वास में सो हं प्राप्त करने की उत्कंठा थी । आत्मा का प्रदेश प्रदेश में प्रभु पद प्राप्त करने की भावना थी । चिंतन की अजस्त्र धारा में स्वाधीन रहते थे। घंटो -घंटों एक आसन पर आसीन थे। वृद्ध अवस्था का समागम होने पर भी । ध्यान और स्वाध्याय में तल्लीन रहते थे । पू. महासतीजी का जैसा नाम था वैसा ही गुण था । जिस तरह चंपा का फूल अपनी सुगंध को चारों तरफ फैलता है उसी तरह आपने सम्यक की साधना ज्ञान की आराधना और दर्शन की दिव्य सुगंध चारों तरफ फैलाई हैं। वृक्ष की छाया के नीचे विश्राम लेने वाले पथिक का तन और मन का ताप शांत हो जाता है उसी तरह आपका ब्रह्मचर्य और तप का अद्भुत प्रभाव जिस पर पड़ता था उसे अपूर्व शांति और शीतलता का अनुभव होता था। आपका जीवन सूर्य की तरह प्रकाशित चंद्र की तरह सौम्य, फूलों की तरह रसदार, गजराज की तरह मस्त और सिंह की तरह निर्भीक था । Simple living and high thinking" आपका जीवन सादा और विचार उच्च था। 66 पू. महासतीजी धर्म के तत्व के शब्दार्थ भावार्थ गूढार्थ को ऐसी गंभीर और प्रभावक शैली में विविध न्याय दृष्टांत देकर समझाते थे कि श्रोतावृंद उसमें तन्मय, चिन्मय बन जाते थे और अपूर्व शांति से वीरवाणी का रसपान करते थे। पू. महासतीजी का जीवन में सेवा का गुण अद्भुत था। पू. कानकुंवरजी म. की सेवा में अपनी कार्य कुरबान कर दी थी। गुरुणी की सेवा पूरे प्रेम से करती थी। छोटी उम्र में गुरुणी के हृदय में अपना स्थान प्राप्त किया था। लेकिन कर्म की गति विचित्र है कालदेव पूं. कानकुंवरजी म.सा. का शिष्यारल पू. चंपाकुंवरजी म.सा. को उठाकर ले गये यह दुर्घटना हमारे लिये असह्य है। अंत में शासनदेव से हमारी प्रार्थना है कि उस महान विभूति को शाश्वत शांति प्रदान करें और उनके शिष्या समुदाय को इस व्रजाघात को धैर्यपूर्वक रहने की शक्ति प्रदान करें । Jain Education International ***** (२२) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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