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साधनों का साहचर्य नियम - उक्त तीनों साधनों में से सम्यदर्शन और सम्यग्ज्ञान में साहचर्य सम्बन्ध है। जैसे मेघपटल के दूर हो जाने पर सूर्य के प्रताप व प्रकाश एक साथ प्रगट हो जाते हैं, उसी प्रकार जिस समय दर्शन मोह के उपशम या क्षयोपशम से मिथ्यादर्शन की निवृत्ति होने से सम्यग्दर्शन प्रादुर्भूत होता है, उसी समय मिथ्याज्ञान की भी निवृत्ति हो कर सम्यग्ज्ञान का भी आविर्भाव हो जाता है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का साहचर्य नियमतः निश्चित है। किन्तु सम्यक्चारित्र की अनियत स्थिति है। अर्थात् किसी में सम्यग्दर्शन-ज्ञानं के साथ ही चारित्र हो भी सकता है और किसी को सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के प्रगढ़ होने के कुछ समय बाद सम्यक्चारित्र हो।
साधनों की पूर्णता व एकता आवश्यक - उपर्युक्त कथन से यह ज्ञात हो गया है कि मुक्ति साधनों का साहचर्य नियम क्या है, लेकिन पूर्णता क्रम से होती है। सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन, तदनन्तर सम्यग्ज्ञान और अन्त में सम्यक्वारित्र पूर्ण होता है। इनमें से एक भी साधन न हो, एक की भी अपूर्णता हो तो मुक्ति प्राप्त नहीं होती है। तेरहवें गुणस्थान के प्रारंभ में यद्यपि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्ण हो जाते हैं फिर भी सम्यक्चारित्र की पूर्णता न होने से मुक्ति नहीं होती है। चारित्र की पूर्णता अयोगकेवली नामक चौदहवें गुणस्थान में होती है। चारित्र मोहनीय का अभाव हो जाने से क्षीण मोह नामक बारहवें गुणस्थान में यथाख्यात चारित्र है, जो चारित्र की पूर्णता का सूचक है, तथापि चारित्र की पूर्णता के लिये योग और कषाय का अभाव भी अपेक्षित है। बारहवें गुणस्थान में कषाय का अभाव हो गया है, लेकिन योग का सद्भाव है जो तेरहवें गुणस्थान के अन्त तक बना रहता है। इसीलिये तेहरवें गुणस्थान में भी चारित्र अपूर्ण माना गया है। .
___ यहाँ यह भी स्पष्ट समझ लेना चाहिये कि औपशमिक क्षायिक सम्यग्दर्शन आदि को प्राप्त करने के बाद ही तत्काल मुक्ति प्राप्त नहीं हो जाती है। क्षायिक सम्यग्दर्शन आदि से संपन्न आत्मा उत्क्रांति करती हुई विभिन्न श्रेणियों स्थानों को प्राप्त कर अयोगिकेवली ही मुक्त होती है औपशमिक सम्यग्दर्शन आदि प्राप्त आत्मा एक निश्चित तथा उपशान्ति मोह गुणस्थान तक उत्क्रांति कर पतन करती है और अपने संसार के कारण भूत मिथ्यात्व गुणस्थान पर आ पहुंचती है।
सम्यग्दर्शन आदि तीनों में लाक्षणिक भिन्नता होने से पार्थक्य है, जिससे यह नहीं समझ लेना चाहिये कि पृथक-पृथक तीन मोक्ष के मार्ग है। किन्तु इन तीनों का एकत्व होने पर ही आत्मा निःशेष रूप से द्रव्य और भावकों से सर्वथा रहित हो मुक्त होती है।
मुक्ति प्राप्ति के लिये सम्यग्दर्शन आदि तीनों के एकत्व की आवश्यकता क्यों है? इसके लिये हम रोगोपचार की प्रक्रिया पर दृष्टिपात करें। जिस प्रकार निरोग होने के लिये औषधि पर श्रद्धान, ज्ञान और चिकित्सक द्वारा बताये गये आचार के अनुसार प्रवृत्ति की जाती है, तीनों में से एक के बिना रोग दूर नहीं हो सकता है, उसी प्रकार भवरोगी के लिये संसार रोग से मुक्त होने के लिये सम्यग्दर्शन, या ज्ञान या चारित्र से मुक्ति प्राप्त नहीं होगी। तीनों की एकता अनिवार्य है। इस सम्बन्ध में एक उदाहरण प्रसिद्ध है -
हतं ज्ञानं क्रिया हीनं हत्प चाज्ञानिनां क्रिया। धावन् किलांधको दग्धः पश्चन्नपिच पंगुलः।
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