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चाहिये। क्योंकि मिथ्या होने पर ये संसार के कारण होंगे। जिसकी दृष्टि सम्यक्आत्मस्वरूप चिन्तन परक है, वह सम्यग्दृष्टि है और उसके दर्शन, ज्ञान, चरित्र ही सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यकचरित्र कहलाते हैं।
सम्यग्नदर्शन आदि तीनों के लक्षण इस प्रकार हैं :___ सम्यग्दर्शन - अपने-अपने स्वभाव में स्थित तत्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। अथवा मिथ्यात्वोदय जनित विपरीत अभिनिवेश से रहित पंचास्किय, षड्द्रव्य, जीवादि सात तत्व एवं जीवादि नौ पदार्थों का प्रथा तथ्य श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। अथवा दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय, क्षयोपशम उपशम रूप अंतरंग कारण से जो तत्वार्थ श्रद्धान होता है, उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। इस अंतरंग कारण की पूर्णता कहीं निसर्ग (स्वभाव) से होती है और कहीं अधिगम (परोपदेशादि) से होती है।
सम्यग्दर्शन सामान्यापेक्षा एक है। निसर्गज और अधिगमज के भेद से दो प्रकार का है। औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकार का है। शब्दों की अपेक्षा संख्यात, श्रद्धान करने वालों की अपेक्षा असंख्यात और श्रद्धान करने योग्य पदार्थों एवं अध्यसयों की अपेक्षा अनन्त प्रकार का है।
सम्यग्ज्ञान - प्रमाण और नयों के द्वारा जीवादि सात तत्वों के संशयविपर्यय और अनध्यवसाय से रहित यथार्थ ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहते हैं। मति, श्रुत, अवधि, मनपर्याय, केवल ये सम्यग्ज्ञान के पाँच भेद हैं। उत्पत्ति में मन और इन्द्रियों की सहायता अपेक्षित होने से मति और श्रुतज्ञान परोक्ष एवं पर निरपेक्ष आत्मा से उत्पन्न होने के कारण अवधि, मनपर्याय और केवल ये तीन ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाते हैं। मति, श्रुत
और अवधि, ये तीन ज्ञान सम्यक् भी और .मिथ्या भी होते हैं, शेष दो सम्यक् ही होते हैं। क्योंकि दोनों मिथ्यात्व के कारणभूत मोहनीयकर्म का अभाव होने से विशुद्ध आत्मा को ही संभव है। मति और श्रुत ये दो ज्ञान सभी संसारी (सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि) जीवों के पाये जाते हैं। अवधिज्ञान भव प्रत्यिक और गुण (क्षयोपशम) प्रत्ययिक होने से दो प्रकार का है। भवप्रत्ययिक देव और नारकों एवं चरमशरीरी तीर्थंकरों में
और दूसरा गुण प्रत्यायिक, मनुष्यतियंचिों में संभव है। मनपर्याय व केवल ज्ञान सम्यग्दृष्टि मनुष्यों के ही होतेहैं। मिथ्यादृर्यटि के अति, श्रुत और अवधिज्ञान मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान एवं विभंगज्ञान कहलाते हैं।
सम्यक्चारित्र • अशुभ से निवृत्ति और शुभ कार्यों में प्रवृत्ति होना सम्यक् चारित्र है। अथवा संसार के कारणभूत रागद्वेषादि की निवृत्ति के लिए ज्ञानवान पुरुष का शरीर और वचन की बाह्य क्रियाओं से तथा आभ्यान्तर मानसिक क्रियाओं से विरत होना सम्यक्चारित्र कहलाता है। यह सम्यग्ज्ञान पूर्वक होता है
और सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन पूर्वक। अतएव सम्यकत्व के बिना सम्यक् चारित्र नहीं होता है, यह सिद्ध हुआ। आरित्र में सम्यक् विशेषण अज्ञानपूर्वक आचरण की निवृत्ति के लिये है।
सामान्यतः चारित्र एक प्रकार का है। अर्थात् चारित्रमोह के उपशम, क्षय या क्षयोपशम से होने वाली आत्मविशुद्धि.की दृष्टि से चारित्र एक है। बाह्य आभ्यान्तर निवृत्ति अथवा निश्चय व्यवहार या प्राणीसंयम इन्द्रियसंयम की अपेक्षा दो प्रकार का है। औपशमिक, क्षायिक क्षायोपशामिक अथवा उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य विशुद्धि के भेद से तीन प्रकार का है। छद्मस्थों का सराग और वीतराग तथा सर्वज्ञों का संयोग और अयोग इस तरह चार प्रकार का है। सामायिक छेदोपस्थापना परिहार विशुद्धि सूक्ष्म रूपराय और यथाख्यात के भेद से पाँच प्रकार का है। इसी प्रकार विविध निवृत्ति रूप परिणामों की दृष्टि से संख्यात, असंख्यात और अनन्त विकल्प रूप है।
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