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यह दोनों प्रकार के तप परस्पर सापेक्ष होते हुए भी आभ्यान्तर तप मुख्य है। इनसे विशेष कर्मक्षय होता है।
संवर-निर्जरा का फलितः मोक्ष का लक्षण - कारण के सद्भाव में कार्य अवश्य होता है। संवर और निर्जरा कर्मक्षय के कारण है। बंधन के विघातक है। अतएव इनके द्वारा समग्र रूपेण कर्म क्षय होने से आत्मा की जो स्थिति बनती है, वही मोक्ष है। मोक्ष अर्थात् आत्मा की सर्वांगीण पूर्णता, पूर्ण कृतकृत्यता एवं परमपुरुषार्थ की सिध्दि। इस स्थिति के प्राप्त होने पर आत्मा कर्मकलंक, शरीर आदि से सर्वथा विलग होकर अनन्त स्वाभाविक ज्ञानादि गुणों और अव्याबाध सुखरूप विलक्षण अवस्था में रूपान्तरित हो जाती है। मोक्ष जीव की वह अवस्था है, जब सब बंधनों का अभाव हो जाता है। दैहिक, वाचिक, मानसिक सब दोष निःशेष हो जाते हैं। सभी प्रकार की उपाधियों से विमुक्त स्वतंत्रता प्राप्त हो जाती है।
यद्यपि मोक्ष का कोई भेद नहीं है, किन्तु अपेक्षा भेद से आत्मा को क्षायिक ज्ञान, दर्शन और यथाख्यातचारित्र रूप स्थिति प्राप्त हो जाने को भावमोक्ष और कर्मजन्य उपाधियों एवं कर्मों के सर्वथाक्षय होने को द्रव्यमोक्ष का कहा जाता है। अथवा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार धाति कमों का क्षय भावमोक्ष है और वेदनीय, आयु, नाम गोत्र, इन चार अघाति कर्मों का क्षय द्रव्यमोक्ष है। इन दोनों में से प्रथम को जीवन मुक्त और द्वितीय को विदेहमुक्त भी कहा जा सकता है। मुक्तात्मा के मौलिक गुण -
कर्ममुक्त आत्मा के मौलिक गुणों का यथाप्रसंग पूर्व में कुछ उल्लेख किया है, अतः पुनरावृत्ति की आवश्यकता नहीं रह जाती है। किन्तु दर्शनान्तरों ने मुक्तात्मा को निर्गुण माना है। उनके मत से मुक्ति प्राप्त आत्मा की स्थिति अपने अविनाभावी असाधारण गुणों से विहीन है। दूसरे शब्दों में कहें तो जड़ पदार्थों की तरह स्थिति हो जाती है। किन्तु इस प्रान्त धारण का निराकरण करने के लये जैन दर्शन का मंतव्य है कि जब यह माना जाता है कि इहलोक स्थित आत्मा उपयोग ज्ञानदर्शन आदिगुण युक्त है तब मुक्तावस्था में भी उन्हीं गुणों से संपन्न रहती है, यह स्वतः सिद्ध है। हाँ, यह कहा जा सकता है कि कर्मावृत्त ऐहिक शरीरधारी आत्मा में वे गुण पूर्ण रूपेण स्पष्ट नहीं थे किन्तु मुक्तात्मा पूर्णतया उन गुणोंयुक्त रहती है। संक्षेप में उन गुणों के नाम इस प्रकार है -१. अनन्तज्ञान २. अनन्तदर्शन ३. अव्यावाधसुख ४. क्षायिकसम्यकत्व ५. अक्षयस्थिति ६. अमूर्तत्व ७. अगुरुलघुत्व ८. अनन्त वीर्य (शक्ति) इनके अतिरिक्त अन्य भी अनन्त गुण हैं। किन्तु यहाँ संकेत मात्र के लिये इन गुणों का उल्लेख इसलिये किया है कि मुक्तात्मा अपने मौलिक गुणों युक्त सदैव रहती है। कालान्तर में भी किसी प्रकार की न्यूनाधिकता नहीं पाई जाती है।
मुक्तात्मा का अवस्थान - अब यह प्रश्न है कि अन्य द्रव्यों की तरह जीव का भी अवस्थान यह लोक है तो क्या कर्मावरण से मुक्त आत्मा का अवस्थान यह दृश्यमान जगत है या अन्य कोई क्षेत्र, कर्मयुक्त आत्मा कहाँ रहती है? इसका उत्तर है कि मुक्तात्मा स्थूल (औरादिक) और सूक्ष्म (तेजस्वकार्मण) शरीर को सदा के लिये छोड़कर अशरीरी होकर अविग्रह (सीधी रेखा जैसी) गति से ऊर्ध्व गमन कर लोक के अग्रभाग में स्थित मुक्ति क्षेत्र (सिद्धशिला) में स्थित हो जाती है। इस गति में केवल एक समय लगता
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