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________________ स्वाध्याय करने का स्वभाव बढ़ाना चाहिए। जिनवाणी में स्वा ध्याय के हेतु जो चार अनुयोग बतलाए हैं, वे ये हैं - (१) प्रथमानुयोग (२) करणानूयोग (३) चरणानुयोग (४) द्रव्यानुयोग। इन चारों अनुयोगों का ही क्रमशः सुविधानुसार स्वाध्याय करना चाहिए। एक अनुयोग को प्राथमिकता देकर भी अन्य अनुयोग को अस्वीकार नहीं करना चाहिए। जब चारों अनुयोग, जिनेन्द्रदेव की दिव्य ध्वनि द्वारा समर्थित हैं तब उन्हें जैसे का तैसा ही क्रम से पढ़ना चाहिए। शंका होने, समझ में न आने, पुष्टि के हेतु किसी विद्वान या श्रमण से पूछ लेने में गौरव की हानि नहीं समझना चाहिए। स्वाध्याय के पाँच प्रकार - स्वाध्याय तप के पांच प्रकार हैं अथवा स्वाध्याय को सार्थक बनाने वाले, स्वाध्याय को सुविकसित करने वाले पाँच तत्व हैं, जिन्हें आचार्य उमा स्वामी ने अपने अमर ग्रन्थ 'मोक्ष-शास्त्र' में नवमें अध्याय के ३५वें सूत्र में इस प्रकार लिखा है -वाचनावृच्छनानुप्रेक्षाम्नाय धर्मोपदेशाः अर्थात् स्वाध्याय को वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश इन पाँच तत्वों के आधार पर उतना सुविकसित करना चाहिए कि जितना भी शक्य और सम्भव हो। (१) वाचना - धर्म-ग्रन्थ के शब्दों को निदोष उच्चारण करके सुस्पष्ट पढ़ना-पढ़ाना, पठित शब्दों का सही 'आगमानुसार-प्रकरणानुसार अर्थ स्वयं समझना और अन्य जनों को भी समझाना, शब्द और अर्थ दोनों को दृष्टि पथ में रखते हुए भव्य जीवों की उनकी भाषा शैली में समझाना। (२) पृच्छना - अपने संशय को दूर करने के लिए अथवा स्वाध्याय द्वारा सीखे हुए विषय को सदृढ़ बनाने के लिए, विनयमयी बुद्धि और विनम्र विवेक लिए किसी विद्वान या गुरु साधु से प्रश्न पूछना पृच्छना है परन्तु अपने अध्ययन अनुभव अभ्यास की अभिव्यक्ति के लिए, अपनी विद्वन्ना बधारने के लिए अपना प्रभुत्व स्थापित करने, अन्य को अपमानित करने के लिए प्रश्न पूछना अनुचित निन्द्य है। (३) अनुप्रेक्षा - विद्वान वक्ता या आचरणशील आचार्य द्वारा प्रतिपादित धार्मिक विषय या तत्व के विषय में पनः पुनः विचार करना, मनन-चिन्तन निदिध्यासन करना, सहज सलभ पठित-लिखित ज्ञान को अपने ज्ञान की तुला पर आगम के परिप्रेक्ष्य में तौलना अनुप्रेक्षा है। (४) आम्नाय निर्दोष (हस्व-दीर्घ-विराम पर ध्यान रखते) सुस्पष्ट (शुद्ध उच्चारण करते) न अधिक जल्दी न अधिक धीमें स्वर में भावनात्मक दृष्टिकोण लिए शुद्धतम पाठ करना। प्रमाद रहित होकर, उत्साहपूर्वक पठन-पाठन करना-वर्णित विषय समझना-समझाना आम्नाय है। (५) धर्मोपदेश - धर्म का ही उपदेश देना, धर्म धारण करने की प्रेरणा अवश्य देना पर कर्म-बन्ध का स्वर्णोपदेश नहीं देना। धार्मिक तात्विक चर्चा में गम्भीर विषय को सर्वसाधारण की सरल सुबोध भाषा शैली में समझाना, जीवन के धरातल के उन्नत करने के लए धर्मोपदेश बिना पूछे भी देना उचित है। स्वाध्यायं परंतपः - जिस स्वाध्याय को जैनाचार्यों ने परंतप कहा, उसी को श्रावक के नित्य कर्मों में तीसरा स्थान दिया और श्रद्धा-विवेक-क्रिया बढाने के लिए दो बार अनिवार्य भी कर दिया। स्वाध्याय बाहर से देखने पर भले ही सामान्य लगे पर भीतर ही भीतर कितना गम्भीर तम कार्य है यह विरले विवेकी ही समझ पाते हैं। आसनों में जैसा शवासन सरल लगता है पर शारीरिक शिथिलीकरण इन्द्रिय-मन निग्रह करना काफी कठिनतम लगता है वैसे ही स्वाध्याय में इन्द्रिय और मन को नियन्त्रित कर, किसी विशिष्ट विषय पर ही केन्द्रित कर ऊहापोह करना कष्ट साध्य कार्य है। धर्म-सभा में बैठकर स्वाध्याय करना और शंका-समाधान करना कोई गुड़ियों का खेल नहीं है और सभी जिज्ञासुओं को सम्यक्कीत्या समाधान कर पाना तो हिमालय की एवरेस्ट की ही चढ़ाई है। वक्ता का एक गुण जहाँ प्रश्नों की बौछार से चर्चा के (१४६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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