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तब धर्म औ दर्शन, साहित्य और राजनीति, समाज और राष्ट्र तथा विश्व जैसे विविध विषयों की चर्चा तो सुदूर रही, भाषा और लिपि, कागज और स्याही तथा कलम जैसी सहज सुलभ चीजों का अभाव रहा होगा और तब मानवीय जीवन को एक अविच्छिन्न संघर्ष कहने वाली जो भावना रही होगी वही स्वाध्याय शिक्षा का आदि स्त्रोत होगी और वही उस समय के व्यक्ति और समाज के अलिखित अध्ययन, अनुभव, अभ्यास की मूलभूत प्रेरणा रही होगी।
संक्षेप में आज के युग में जितने भी विविध विषय हैं, वे सब एक से अधिक वर्षों के स्वाध्यायों और परीक्षणों के परिणाम हैं। विचार के धरातल में स्वाध्याय ही शिक्षा का वह आदि स्रोत है, जिसने मानव को योग्यतानुसार आगे बढ़ाया और बार-बार सिखलाया कि आदमी, अगर तू आदमी है तो आदमी को आदमी समझ। मेरी आस्था है कि अतीत और आज के युग में भी इस से बढ़कर न कोई धर्म और दर्शन अतीत में था, न आज है और न आगे भी होगा।
स्वाध्याय का अर्थ-भाव - स्वाध्याय का अर्थ सीधा साधा है पर मूलतः भावगहन चिन्तन एवं मनन को अपने में समेटे हैं। स्वाध्याय में दो शब्द जुड़े हैं :- (१) स्व (२) अध्याय। स्व से अभिप्राय आत्मा का है और अध्याय से आशय प्रकरण, पाठ, परिच्छेद, सर्ग आदि का है। अतएव समूचे स्वाध्याय शब्द का आर्थ हुआ कि आत्मा के अध्याय को पढ़ना। दूसरे शब्दों में स्वाध्याय का सरल अर्थ यह है कि धर्म और दर्शन सम्बन्धी ग्रन्थ पढ़ना, शरीर और आत्मा के भेद-विज्ञान को समझना, तीन काल-छह द्रव्य
और छह लेश्या तथा छहकाय के जीव, पाँच अस्तिकाय, पाँच व्रत, पाँच समिति, पाँच गति, पाँच ज्ञान, पाँच चारित्र ये सभी मोक्ष के मूलभूत कारण हैं, इन पर विश्वास करने वाला सम्यग्दृष्टि है। यह बात श्री १००८ जिनेन्द्र देव ने दिव्यध्वनि में कही है। इनके प्रयोग पर ही लोक-जीवन मंगलमय होगा और परलोक में भी सुख शान्ति, सन्तोष समृद्धि भी प्राप्त होगी।
पर स्वाध्याय का अर्थ हमने अनुचित अथवा अन्यथा या अपने हिसाब से कर लिया। अपने आप अध्ययन करना या अपने आप पढ़ना स्वीकार कर लिया, जब जैसा चाहा वैसा सुन या पढ़ लिया, शंका होने पर मनमाना समाधान करना या कतराना भी हमने सीख लिया। गुरु के सम्पर्क में आवश्यकता को नकार दिया। अपने आप का अध्ययन, अनभव. अभ्यास तो आशातीत अपर्ण है और यद्वातद्वा तथा अष्ट शण्ट एवं इतना अनर्गल विकृत हो जाता है कि उस में सुधार करना तो पूरी हिमालय की चढ़ाई ही बन जाता है। स्वाध्याय का अपूर्ण मनमाना अर्थ स्वीकार लें तब तो घर-घर अखबार, पत्र पत्रिका का स्वाध्याय हो गया, संस्थान में आसीन संचालक श्रेष्ठ बहीखाता या लेखा जोखा देखें तो स्वाध्याय हो गया, बालक-बालिकायें पाठयक्रम में निर्धारित कोर्स व फोर्स की किताबें पढ़ने लगें तो स्वाध्याय हो गया. युवक-युवतियाँ प्रिय विशिष्ट लेखक गुलशनन्दा आदि के उन्मादक उपन्यास पढ़ें तो स्वाध्याय हो गया, मन्दिर-स्थानक-उपाश्रय में जाकर जो भी ग्रन्थ हाथ आ गया, उसे कहीं से भी पढ़ लिया सो स्वाध्याय हो गया, यह शुद्ध भ्रम है, जो दूर होना ही चाहिये।
एक स्वाध्याय शब्द में तीन शब्द जुड़े हैं :- (१) स्व (२) अधि (३) आय। स्व का अर्थ अपना या आत्मा है और अधि का अर्थ ज्ञान है, तथा आय का अर्थ आमदनी है, प्राप्ति है। इसलिए अपनी आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना ही स्वाध्याय है। चूंकि पूर्व अनुच्छेद में उल्लेखित कार्यों से आत्मानुभूत, आत्मबोध, आत्मसंयम की अणुभर भी प्राप्ति नहीं होती है अतएव वे सभी कार्य उबाऊ दिमाग बिगाडू दमघोंटू कार्य हैं। उनसे बचना चाहिए और किसी प्रामाणिक वस्तविक विद्वान-गुरु (श्रमण) के मार्ग दर्शन में
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