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________________ कहा जो सबसे बड़ा त्यागी हो। चौथे ने कहा जो सबसे बड़ा तपस्वी हो। पांचवे ने कहा जिसके सर्वाधिक अनुयायी हो इत्यादि। किन्तु इन उत्तरों से सबकी संतुष्टी नहीं हुई। विद्वद् गोष्ठी में एक गीतार्थ महात्मा भी बैठे थे। उनसे सही उत्तर के लिए निवेदन किया गया। महात्मा ने सबको शान्त कर कहा 'जो राग दोसंहिं समो सपुज्जो।' ६ अर्थात् जो राग द्वेष में सम है -जिसे कोई दस कड़वे अप शब्द कहे; फिर भी विषमता न जाये, और बदले में बीस घूट मीठे अमृत की पिलादे, वही सबमें महान है पूज्य है। महात्मा के उत्तर से सही संतुष्ट हुए। वस्तुतः जो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी 'सम' रहे वह मानव महामानव होता है। प्रभु महावीर ने अपनी अंतिम देशना में फर माया है - “लाहा लाहे सुहे दुखे, जीविए मरणए तहा। समो निंदा पंससासु, समो माणा व माणंओ।" " (५) समता से सद्गति - 'जैसी मति वैसे गति के अनुसार जो मृत्यु समय में भी समता योग में रहते हैं, उनकी शुभ लेश्या होने से सद्गति सुनिश्चित होती है। जब कि ममता मूर्छा रखने वाले मरकार प्रायः अशुभ लेश्या में होने से तिर्यंच नरक गतियों में जाते हैं। (६) समता से अजय साधना भी विशेष फलदायक होती है - जिस प्रकार दूध के साथ घृत का योग होने से, उसका सेवन विशेष शक्ति दायक हो जाता है, उसी प्रकार साधना के साथ समता योग होने से वह भी विशेष फल- दायक हो जाती है। सामायिक हो, चाहे पूजा या त्याग तपस्या, समता योग के साथ की गई अजय साधना भी चमत्कार पैदा कर देती है। समता योग से विधि पूर्वक अरिहंत प्रभु को किया गया एक वंदन भी संसार परित्त करने का हेतु बन जाता है। इस संबंध में महान अध्यात्म योगी श्रीमद् देवचन्द्र जी ने प्रभु संभवनाथ की स्तुति करते हुए कहा है - "एक बार प्रभु वंदना रे, आगम रीते थाय। .. कारण सत्य कार्य नारे, सिद्धि प्रतीति थाय॥" आगम कार भी कहते हैं - “इक्कोवि नमुक्कारो, जिणवर व सहस्स वद्धमानस्स संसार सागराओ, तारे इ नरवाजारि वा। (७) बिना समता मुक्ति नहीं - प्रभु ने फरमाया है कि 'समयाए बिण मुक्खो, न हु हुओ कह वि न हु होई।' १० अर्थात् बिना समता योग आराधना कभी किसी आत्मा को मुक्ति नहीं हुई और न होगी। (८) आत्मा से परमात्मा हो जाता है - आत्मा से महात्मा और महात्मा से परमात्मा पद प्राप्त करने का मूल मार्ग समता योग साधना हैं समता से अवगुणों का विनाश और सद्गणों का विकास होता है। फलतः शनैः-शनैः आत्मा का परमात्मा स्वरूप प्रगट हो जाता है। एक उर्दू कवि ने भी कहा है - ६. ७. ८. दशवै. ९/३/९१ उत्तरा अ १९ गा. ९०१। देवचंद्रजी चौबीसी सी प्रकीर्ण गाथाओं से। सामायिक प्रवचन पृ. ७८। १०. (१३४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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