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________________ जैन दर्शन में जीव के अस्तित्व की वैज्ञानिकता • विद्यावारिधि डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया वैदिक, बौद्ध और जैन दर्शन मिलकर भारतीय प्राच्य दर्शन के रूप को स्वरूप प्रदान करते हैं। वैदिक दर्शन के लिए वेद, बौद्ध दर्शन के लिए त्रिपिट तथा जैन दर्शन के लिए आगम वाङ्मय उपलब्ध है। ये सभी दर्शन आस्थावादी है और सभी में जीव के अस्तित्व विषय पर चर्चा की गयी है। यहाँ जैन दर्शन में जीव के अस्तित्व की वैज्ञानिकता पर संक्षेप में चर्चा करेंगे। जैन दर्शन में गुणों की मान्यता वस्तुतः महत्वपूर्ण है। यहाँ गुणों के समूह को द्रव्य कहा गया है। जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल नामक षट् द्रव्यों का उल्लेख है। इन द्रव्यों का समूह वस्तुतः कहलाता है-संसार। इस प्रकार जीव संसार का चेतन द्रव्य है। यह अविनाशी है। शाश्वत है। जीव अर्थात् प्राण जब पर्याय धारण करता है, तब वह प्राणी कहलाता है। प्राणी अथवा जीव संसार में अनादि काल से जन्म-मरण के दारुण दुःखों को भोग रहा है। भव-भ्रमण की कहानी लम्बी है। संसार में जागतिक और आध्यात्मिक दो प्रमुख दृष्टियाँ हैं। इन उभय दृष्टियों में जीव का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यद्यपि ज्ञान और दर्शन स्वभावी होने से वह आत्मा कहलाता है, तथापि संसारी दशा में प्राण धारण करने से वह जीव कहलाता है। जीव अनन्त गुणों का स्वामी है, प्रकाश अमर्तिक सत्ताधारी पदार्थ है। वह किन्हीं पंचभूतों के मिलने से उत्पन्न होने वाला कोई संयोगी पदार्थ नहीं है। भव-भ्रमण और भव-मुक्ति दोनों दशाओं में उसकी प्रधानता उल्लेखनीय है। ____ जागतिक दशा में वह पर्यायबद्ध अर्थात् शरीर में रहते हुए भी शरीर से पृथक, लौकिक कार्य भी और कर्म का भोक्ता भी है। वह इन सबका वस्ततः ज्ञाता है। वह असंख्यात प्रदेशी भी है और संकोच विस्तार शक्ति के कारण शरीर प्रमाण होकर रहता भी है। उसे किसी एक ही सर्व व्यापक जीव का अंश होना जैन दर्शन नहीं मानता है। जीव. तो अनन्तानंत हैं। उनमें से जो भी जीव साधना विशेष के द्वारा कर्मों तथा संस्कारों का क्षय/विनाश कर लेता है, वह सदा अतीन्द्रिय आनन्द का भोक्ता परमात्मा बन जाता है। इसी अवस्था में उसके ज्ञाता और द्रष्टा गुण मुखर हो उठते हैं। जैन-दर्शन में जीव अथवा आत्मा की इसी स्थिति को ईश्वर अथवा भगवान् कहा गया है। इसके अतिरिक्त किसी एक ईश्वर की अवधारणा जैन दर्शन में मान्य नहीं है। जीव के मुख्य दो भेद किए गए हैं संसारी और मुक्त। संसारी जीव के भी दो उपभेद किए गए हैं -त्रस और स्थावर। त्रस जीव के चार भेद किए गए हैं -दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। स्थावर जीव को पाँच भेदों में बांटा गया है- पृथ्वीकायिक जीव, जलकायिक जीव, तेजस्कायिक जीव, वायुकायिक जीव और वनस्पति कायिक जीव। पंचेन्द्रिय जीव के भी दो उपभेद किए गए हैं -मन सहित जीव और मन रहित जीव। इन्हें पारिभाषित शब्दावलि में क्रमशः संज्ञी और असंज्ञी भी कहा गया है। इसके अतिरिक्त शेष सभी जीव मन रहित होते हैं। करता (११४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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