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________________ यदि शक्ति (देवता) को अक्षुण्ण रखना है तो उस अपचय की पूर्ति के लिये उसमें अक्ष्य का समर्पण आवश्यक है। जिसके प्राप्त होने पर शक्ति पुष्ट होकर अपना संरक्षण करने में समर्थ हो वहीं शक्ति का आहार है। यह आहार शक्ति को दिया जाना चाहिए। यही देवता के उद्देश्य से किया गया द्रव्यत्याग है। देवतोद्देश्य द्रव्यत्याग ही त्याग है। कालान्तर में यह प्रक्रिया स्वार्थदूषित हो गई। वैदिक याग में जिस प्रकार मंत्रादिजन्य संस्कार द्वारा साधारण अग्नि को दिव्य में परिणत किया जाता है और फिर उस दिव्य अग्नि में आत्मसंस्कार साधक और अन्यान्य यागादि कर्म किए जाते हैं तांत्रिक होम में भी वैसा ही किया जाता है। मंत्रकृत संस्कार से होमाग्नि, इष्टाग्नि में और इष्टाग्नि, ब्रह्माग्नि तक के संस्कार में परिणत होती थी और इस तरह सन्तुलन ठीक रखा जाता था -लौकिक अभ्युदय तथा पारलौकिक निःश्रेयस प्राप्त किया जाता था। यह सब यज्ञ का अन्तरंग पक्ष है। स्वार्थान्धतावश जब इसका स्थूल पक्ष विकृत होने लगा तब गीताकार ने भी इसका खण्डन किया। उसने यज्ञों में जप-यज्ञ को यज्ञानाम् जपयज्ञोऽस्मि महत्व दिया। ब्राह्मण सूत्रकार. बौधायन तक ने कहा - सर्वक्रतुयाजिनामात्मयाजी विशिष्यते अर्थात् सब प्रकार के यज्ञों में आत्मयाग ही श्रेष्ठ है। इसी का नाम आत्मत्याग, आत्मनिष्ठा और आत्मप्रतिष्ठा है। यज्ञ कर्म है पर हर कर्म यज्ञ नहीं है। विपरीत इसके वह कर्म यज्ञ है जो व्यक्तिगत स्वार्थ पूर्ति में पर्यवसित न होकर सम्पूर्ण विश्व की साधारण सम्पत्ति के रूप में व्याप्त हो जाता है। मतलब जो विश्वात्मा की प्रसत्रता के लिये किया जाय वही यज्ञ है। उसी से विश्वात्मा तृप्त होती है और यजमान के लिये वह हित या अमृत बन जाता है। यज्ञ की स्थूल वैदिक प्रक्रिया के विकृत हो जाने पर उसकी मूल भावना की रक्षा के लिये श्रमणधारा सक्रिय हुई। इसी मूल भावना को धारण करने के लिये बुद्ध और जिनात्माओं का अवतार हुआ। इसीलिए उन्हें व्यापक रूप में भारतीय अतीन्द्रियदर्शी ऋषियों और अवतारों की अन्तर्धारा-उपधारा कहा जाना चाहिए। जिन वे ही हैं जिन्होंने द्वेष गर्भ राग पर विजय प्राप्त की। यज्ञ की स्थूल प्रक्रिया जब द्वेष-गर्भ राग से विकृत हो गई तब अन्तर्याग पर बल दिया गया। जिनों ने इस अन्तर्याग के लिये तप और अहिंसा का मार्ग ग्रहण किया। अहिंसा आचार में भी और विचार में भी।. द्वेष-गर्भ राग का शमन इनका लक्ष्य था इसीलिए ऐसे राग पर जय पाने के कारण ही वे जिन कहे गए। - आज विज्ञान से ज्ञात नियमों का हम प्रौद्योगिकी में संचार कर रहे हैं और मानव प्रकृति अर्थात् देवता पर संघर्ष द्वारा विजय प्राप्त करने के दम्भ में आत्महत्या और पर-हत्या दोनों की ओर बढ़ रहा है -मानव और प्रकृति से समेकित पर्यावरण असन्तुलित हो रहा है। इस प्रगति में जो उपभोगवादी असंस्कृति फैल रही है -वह 'हिंसा' का ही प्रसार है आवश्यकता है इस 'हिंसा' पर सर्वथा और सर्वात्मना विजय की जो 'अहिंसा' से ही सम्भव है और इसके सूत्रधार होने का श्रेय जिनों को है। पारिस्थितिक संकट का मूल मानव में दानवाकार उभरती वृत्ति "हिंसा' की भावना है और इसका एकमात्र उपचार 'अहिंसा' है। पर्यावरण में होने वाले असन्तुलन के निवारक यज्ञ में पनपती हुई हिंसावृत्ति को कृष्ण, बुद्ध और जिनों ने लक्षित किया और अहिंसा को -निष्काम भावना को एकमात्र उपचार घोषित किया। उनके यहाँ "हिंसा' की परिभाषा (११२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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