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________________ अभ्यस्त श्रुत की स्थिरता, सूत्र की अविच्छिन्नता आदि हैं। जिस शिष्य को स्वाध्याय कराया जाता है, उसमें भी श्रुत सेवा का भाव जागृत होता है। १३२ स्वाध्यायी औरों को भी धर्म में स्थिर कराता है (दशवै. ९.४ सू. ५, गा. ३)। (आ) सत्कार-सम्मान में वृद्धि - स्वाध्याय के प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों प्रकार के फल है। १३३ परम्परा परोक्ष फल है-शिष्य-प्रशिष्य आदि द्वारा पूजा व सत्कार की प्राति है १२० देवों तथा मनुष्यों द्वारा निरन्तर प्राप्त होने वाली अभ्यर्थना अर्चना आदि -ये साक्षात् प्रत्यक्ष फल हैं। १३५ (इ) लौकिक अम्युदय-सुख - सातावेदनीय आदि सुप्रशस्त कर्मों के तीव्र अनुभाग के उदय से राजा-महाराजा-चक्रवर्ती आदि ऐश्वर्ययुक्त-व्यक्तियों के सुख की प्राप्ति-यह स्वाध्याय का परोक्ष फल है। १३६ ३. चित्त की एकाग्रता व ध्यानादि में सहायता - स्वाध्याय से चित्त की एकाग्रता होती है। १३७ स्वाध्यायी व्यक्ति प्रमादग्रस्त नहीं होता। १२८ स्वाध्याय से मन पर विजय प्राप्त होती है। १२४ स्वाध्याय से इन्द्रियों की बहिर्मुखता रुकती है। १४° स्वाध्याय को धर्मध्यान का आलम्बन कहा गय ४. मोक्षमार्ग/मोक्षप्राप्ति में सहायता - आत्म ज्ञान से मोक्ष-प्राप्ति होती है, आत्मज्ञान के बिना नहीं। १४२ शास्त्राध्ययन से आत्म-अनात्मविवेक (भेद-ज्ञान) हो जाता है। १०२ शास्त्राभ्यास से इन्द्रिय जय, मनो-जय कषाय उपशम, तथा कर्मक्षय होकर मोक्षप्राप्ति होती है। १४४ द्रव्यश्रुत से भाव श्रुत, क्रम से सम्यग्ज्ञान, संवेदन, आत्मसंवित्ति, केवलज्ञान, फिर मोक्ष होता है। १४५ इसीलिए जिन-वचन को विषय सुखों का विरेचक, जन्ममरण रूप व्याधि का नाशक, सर्वदुखःक्षय का अमृत-औषधि कहा गया है। १०६ १३२. स्थानांग ५.३.५४१। १३३. ति. प. १.४०.४१ १३४. ति. प. १.३८ १३५. ति. प. १.३७ १३६. ति. प. १.४०-४१ १३७. दशवै. ९.४ सू. ५, गाथा-३, मूलाचार-९६९, १३८. मूलाचार- ९७१, उत्त. २९.५९ १३९. तत्त्वानुशासन- ७९, १४०. सावयधम्मदोहा-१४० १४१. ठाणांग-४.१.३०८, ब पाख्याप्र. २५.७.८०२, औपपा. १९, रयणा सार १५५, द्वादशानु तत्वानुशासन-८१ १४२. प्रवचनसार- १.८९, योगसार-१२, १४३. समयसार- २७४ पर आत्मख्यात टीका, प्रवचनसार ३.३३ पर तत्त्वदीपिका टीका १४४. रयणा सार- ९१, ९५, १४५. नयचक्र वृहद- ३९४ पर उद्धत ( जै. सि. को ४.५२६)। १४६. दर्शन प्राभृत-१७, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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