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सम्पूर्ण जिनवाणी का सार ११६ तथा मोक्षमार्ग की सीढ़ा, ११७ चारित्र रूपी जहाज है, उसका चालक 'ज्ञान' ही है। ११८ जीवादि तत्वों के ज्ञान के बिना संयमादि का आचरण सम्भव नहीं है। ११९ मनुष्यत्व का सार 'ज्ञान' है। १२० किन्तु ज्ञान-प्राप्ति का, तत्त्व-निर्णय का, आत्म-ज्ञान का, १२१ मुख्य आधार श्रुत (जिनवाणी) है। फलतः सज्ज्ञान की प्राप्ति-हेतु सच्छास्त्र की उपासना या आश्रयण मोक्षार्थी के लिए परम कर्तव्य सिद्ध हो जाता है। १२२ शास्त्रों में बहुश्रत की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। १२३ बहुश्रुतता स्वाध्याय से प्राप्त होती है।
स्वाध्याय से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होकर १२४ प्रज्ञातिशय उत्पन्न होता है। १२५ दुःख का मूल अज्ञान है। १२६ स्वाध्याय से अज्ञान का विनाश, तथा ज्ञान-सूर्य का उदय होता है। १२७ घवलाकार की दृष्टि में प्रवचन के अभ्यास से सूर्य की किरणों के समान स्वच्छ ज्ञान उदित होता है। १२८ राजवार्तिककार स्वाध्याय का फल सभी संशयों की निवृत्ति मानते हैं। १२९
प्रज्ञातिशय के आनुपंगिक गुण - (अ) शासन व भूत की रक्षा - राजवार्तिककार के मत में जिनप्रवचन की रक्षा (प्रवचनस्थिति) स्वाध्याय से सम्भव है। स्वाध्याय से परवादियों की शंका तथा सर्वविध संशय सबका उच्छेद हो जाता है। १३° शासन का विस्तार धर्मोपदेश द्वारा सम्भव है। स्वाध्याय से ही परोपदेशकता का गुण समृद्ध होता है। १२१ स्थानांग के अनुसार स्वाध्याय का फल श्रुत का संग्रह,
११६. आचारांग-नियुक्ति, १७। ११७. शील पा. २०। ११८. (क) मूलाचार ८९८
(ख) समयसाराधिकार-७ ११९. दशवै. ४.१२। १२०. दर्शनप्राभृत ३१॥ १२१. (क) प्रवचनसार. ३.३२। (ख) द्वाद्वशानुप्रेक्षा-४६१। (ग) प्रवचनसार- ३.३३। १२२. (क) उत्त. मू. ११.३२। (ख) प्रवचनसार, ३.३२। १२३. उत्त. ११.१६.३१ १२४. उत्त. २३.१८, स्थानांग-५.३.५४१ १२५. प्रज्ञातिशय......इत्येवमाद्यर्थः (सर्वार्थ. ९.२५)। १२६. अण्णाणां परमं दुक्खं (ऋषिभाषित, २१.१)। १२७, (क) धवला, १.१.१.१ गाथा-५०-५१। (ख) तिलोयपण्णात्ति, १.३६। १२८. धवला, १.१.१.१ गाथा-४७। १२९. राजवार्तिक, त. सू. ९.२५.६। १३०. राजवार्तिक, ९.२५.६ १३१. भगवती आरा. १००.
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