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________________ मिलते हैं। इससे ऐसा लगता है कि भगवान महावीर की निर्ग्रन्थ परम्परा में भी ज्ञात-दृष्टा भाव में चेतना को स्थिर रखने के लिए विपश्यना जैसी कोई ध्यान साधना की पद्धति रही होगी। यद्यपि विस्तृत विवरणों के अभाव में आज उस पद्धति की सम्पूर्ण प्रक्रिया की चर्चा तो नहीं कर सकते, परन्तु आचारांग जैसे प्राचीन आगमन में इन शब्दों की उपस्थित इस तथ्य की सूचक अवश्य है कि इस युग में ध्यान साधना की जैन परम्परा की अपनी कोई विशिष्ट पद्धति थी। यह भी हो सकता है कि साधकों की प्रकृति के अनुरूप ध्यान साधना की एकाधिक पद्धतियाँ भी प्रचलित रही हों, किन्तु आगमों के रचनाकाल तक वे विलुप्त होने लगी थीं। जिस रामपुत्त का निर्देश भगवान् बुद्ध के ध्यान के शिक्षक के रूप में मिलता है। उनका उल्लेख जैन परम्परा के प्राचीन आगमों में जैसे सूत्रकतांग, अंतकृत्दशा, औपपातिक दशा, ऋषिभाषित आदि में होना (९५) इस बात का प्रमाण है कि निर्ग्रन्थ परम्परा रामपुत्त की ध्यान साधना की पद्धति से प्रभावित थी। बौद्ध परम्परा की विपश्यना और निम्रन्थ परम्परा की आचारांग की ध्यान साधना में जो कुछ निकटता परिलक्षित होती है, वह यह सूचित करती है कि सम्भवतः दोनों का मूलस्रोत रामपुत्त की ध्यान-पद्धति रही होगी। इस सम्बन्ध में तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन किया जाना अपेक्षित है। षट्आवश्यकों में कायोत्सर्ग को भी एक आवश्यक माना गया है। कायोत्सर्ग ध्यान साधना पूर्वक ही होता है। इसमें कोई संदेह नहीं है। प्रतिक्रमण में अनेक बार कायोत्सर्ग (ध्यान) किया जाता है। वर्तमान काल में भी यह परम्परा अविच्छिन्न रूप से जीवित है। आज भी ध्यान की इस परम्परा में तत्संबंधी दोषों के चिन्तन के अतिरिक्त नमस्कार मन्त्र, चतुर्विशंतिस्तव के माध्यम से पंचपरमेष्ठी अथवा तीर्थंकरों का ध्यान किया जाता है। मात्र हुआ यह है कि ध्यान की इस समग्र क्रिया में, जो सजगता अपेक्षित थी, वह समाप्त हो गई है और ये सब ध्यान संबंधी प्रक्रियाएं रूढि मात्र बनकर रह गई हैं। यद्यपि इन प्रक्रिय उपस्थिति से यह ज्ञात होता है कि ध्यान की इन प्रक्रियाओं में चेतना को सतत् रूप से ज ज्ञाता-द्रष्टा भाव में स्थिर रखने का प्रयास किया जाता रहा है। आगम युग तक जैनधर्म में, ध्यान का उद्देश्य मुख्य रूप से आत्मशुद्धि या चरित्रशुद्धि ही था अथवा यों कहें कि वह चित्त को समभाव में स्थिर रखने का प्रयास था। मध्ययुग में जब भारत में तन्त्र और हठयोग संबंधी साधनाएँ प्रमुख बनी तो ध्यान की प्रक्रिया में परिवर्तन आया। आगमिक काल में ध्यान साधना में शरीर, इन्द्रिय मन और चित्त वृत्तियों के प्रति सजग होकर चेतना को द्रष्टा भाव या साक्षी भाव में स्थिर किया जाता था, जिससे शरीर और मन के उद्वेग और आकुलताएं शान्त हो जाती थीं। दूसरे शब्दों में वह चैत्तसिक समत्व अर्थात् सामायिक की साधना थी। जिसका कुछ रूप आज भी विपश्यना में उपलब्ध है। किन्तु जैसे-जैसे भारतीय समाज में तन्त्र और हठयोग का प्रभाव बढ़ा वैसे-वैसे जैन साधना पद्धति में भी परिवर्तन आया। जैन ध्यान पद्धति में पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ आदि ध्यान की विधियाँ और पार्थिवी, आग्नेयी, वायवी और वारुणी जैसी धारणाएं सम्मिलित हुई। बीजाक्षरों और मन्त्रों का ध्यान करने की परम्परा विकसित हुई और षट्चक्रों के भेदन का प्रयास भी हुआ। ९५. Prakrit Proper Names Vol II Page ६२६ वही भाघ १ पृ. ४१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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