SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 400
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बाद के दो शुक्लध्यान केवली (सयोगी केवली और अयोगी केवली) में सम्भव है। दिगम्बर परम अनुसार आठवें गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक शुक्लध्यान सम्भव है। पूर्व के दो शुक्लध्यान आठव से बारहवें गुणस्थानवर्ती पूर्वधरों के होते हैं और शेष दो तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती केवली का (८७)। जैनधर्म में ध्यान साधना का इतिहास जैन धर्म में ध्यान साधना की परम्परा प्राचीनकाल से ही उपलब्ध होती है। सर्वप्रथम हमें आचारांग में महावीर के ध्यान साधना संबंधी अनेक सन्दर्भ उपलब्ध हैं। आचारांग के अनुसार महावीर अपने साधनात्मक जीवन में अधिकांश समय ध्यान साधना में ही लीन रहते थे (८८), आचारांग से यह भी ज्ञात होता है कि महावीर ने न केवल चित्तवृत्तियों के स्थिरीकरण का अभ्यास किया था अपितु उन्होंने दृष्टि के स्थिरीकरण का भी अभ्यास किया था। इस साधना में वे अपलक होकर दीवार आदि पर किसी एक बिन्दु पर ध्यान केन्द्रित करते थे। इस साधना में उनकी आँखे लाल हो जाती थीं। और बाहर की ओर निकल जाती थी जिन्हें देखकर दूसरे लोग भयभीत भी होते थे (८९) । आचारांग के ये उल्लेख इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि महावीर ने ध्यान साधना की बाह्य और आभ्यन्तर अनेक विधियों का प्रयोग किया था। वे अप्रमत्त ( जाग्रत ) होकर समाधिपूर्वक ध्यान करते थे। ऐसे भी उल्लेख उपलब्ध होते हैं कि महावीर के शिष्य प्रशिष्यों में भी यह ध्यान साधना की प्रवृत्ति निरन्तर बनी रही । उत्ताध्ययन में मुनि जीवन की दिनचर्या का विवेचन करते हुए स्पष्ट रूप से निर्देश दिया गया है कि मुनि दिन और रात्रि के द्वितीय प्रहर में ध्यान निर्देश दिया गया है कि मुनि और रात्रि के द्वितीय प्रहर में ध्यान साधना करे (९०) । महावीर कालीन साधकों का ध्यान कोष्ठोपगत विशेषता आगमों में उपलब्ध होता है। यह इस बात का सूचक है कि उस युग में ध्यान साधना मुनि जीवन का एक आवश्यक अंग थी। भद्रबाहु द्वारा नेपाल में जाकर महाप्राण ध्यान की साधना करने का उल्लेख भी मिलता है (९१) । इसी प्रकार दुर्बलिकापुष्यमित्र की ध्यान साधना का उल्लेख आवश्यकचूणि में है (९२) । यद्यपि आगमों में ध्यान संबंधी निर्देश तो है किन्तु महावीर और उनके अनुयायियों की ध्यान प्रक्रिया का विस्तृत विवरण उनमें उपलब्ध नहीं । महावीर के युग में श्रमण परम्परा में ऐसे अनेक श्रमण थे जिनकी अपनी-अपनी ध्यान साधना की विशिष्ट पद्धतियाँ थीं। उनमें बुद्ध और महावीर के समकालीन किन्तु उनके ज्येष्ठ रामपुत्त का हम प्रारम्भ में " (९४) जैसे विशेषण ही उल्लेख कर चुके हैं। आचारांग में साधकों के सम्बन्ध में विपस्सी (९३) और पास ८७. ८८. ८९. ९०. ९१. ९२. ९३. ९४. Jain Education International तत्त्वार्थसूत्र ९ / ३९-४९ आचारांग १।९।१।६, ११९।२।४, ११९१२।१२ वही १।९।१५ उत्तराध्ययन २६ / १८ आवश्यक चूर्णि भाग २ पृ. १८७ वही भाघ १ पृ. ४१० आचारांग १/२/५/ १२५ ( आचार्य तुलसी ) वही १/२/३/७३, १/२/६/१८५ (७७) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy