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________________ और क्रोध की प्रतिक्रिया व्यक्त न करना तथा यह विचार करना कि क्रोध का परिणाम दुःखद होता है अथवा यह सोचना कि मेरे निमित्त से इसको कोई पीड़ा हुई होगी, अतः यह मुझे अपशब्द कह रहा है, यह विपाकविचय धर्मध्यान है। संक्षेप में कर्मविपार्का के उदय पर उनके प्रति साक्षी भाव रखना, प्रतिक्रिया के दुःखद परिणाम का चिन्तन करना एवं प्रतिक्रिया न करना ही विपाक-विचय धर्मध्यान है। ४. संस्थान विचय - लोक के स्वरूप के चिन्तन को सामान्य रूप से संस्थान विचय धर्मध्यान कहा जाता है। किन्तु लोक एवं संस्थान का अर्थ आगमों में शरीर भी है। अतः शारीरिक गतिविधियों पर अपनी चित्तवृत्तियों को केन्द्रित करने को भी संस्थान विचय धर्मध्यान कहा जा सकता है। अपने इस अर्थ में संस्थान विचाय धर्मध्यान शरीर-विपश्यना या शरीर-प्रेक्षा के निकट है। आगमों में धर्मध्यान के निम्न चार लक्षण कहे गये हैं (७८) . १. आज्ञारुचि - जिन आज्ञा के सम्बन्ध में विचार-विमर्श करना तथा उसके प्रति निष्ठावन रहना। २. निसर्गरुचि - धर्मकार्यों में स्वाभाविक रूप रुचि होना। ३. सूत्ररुचि - आगमन शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन में रुचि होना। ४.अवगाढ़रुचि • आगमिक विषयों के गहन चिन्तन और मनन में रुचि होना। दूसरे शब्दों में आगमिक विषयों का रुचि गम्भीरता से अवगाहन करना। स्थानांग में धर्मध्यान के आलम्बनों की चर्चा करते हुए, उसमें चार आलम्बन बताये गये हैं -१. वाचना - अर्थात् आगमसाहित्य का अध्ययन करना, २. प्रतिपृच्छता - अध्ययन करते समय उत्पन्न शंका के निवारणार्थ जिज्ञासावृत्ति से उस सम्बन्ध में गुरुजनों से पूछना। ३. परिवर्तना - अधीत सूत्रों का पुनरावर्तन करना। ४. अनुप्रेक्षा - आगमों के अर्थ का चिन्तन करना। कुछ आचार्यों की दृष्टि में अनुप्रेक्षा का अर्थ संसार की अनित्यता आदि का चिन्तन करना भी है। स्थानांगसूत्र के अनुसार धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं कही गई हैं (८०) -१. एकत्वानुप्रेक्षा, २. अनित्यानप्रेक्षा. ३. अशरणानप्रेक्षा और ४. संसारानप्रेक्षा। ये अनप्रेक्षाएँ जैन परम्परा में प्रचलित १२ अनुप्रेक्षाओं के ही अन्तर्गत है। जिनभद्र के ध्यानशतक तथा उमास्वाति के तत्वार्थसूत्र में धर्मध्यान के अधिकारी के सम्बन्ध में चर्चा उपलब्ध होती है। जिनभद्र (८१) के अनुसार जिस व्यक्ति में निम्न चार बातें होती हैं वही धर्मध्यान का अधिकारी होता है। १. सम्यवज्ञान (ज्ञान), २. दृष्टिकोण की विशुद्धि (दर्शन), ३. सम्यक् आचरण (चारित्र) और ४. वैराग्यभाव। हेमचन्द्र ने (८२) योगशास्त्र में इन्हें ही कुछ शब्दान्तर के साथ प्रस्तुत किया है। वे धर्मध्यान के लिए १. आगमज्ञान, २. अनासक्ति, ३. आत्मसंयम और ४. मुमुक्षुभाव को आवश्यक मानते हैं। धर्मध्यान के अधिकारी के सम्बन्ध में तत्वार्थ का दृष्टिकोण थोड़ा भिन्न ७८. ७९. ८०. ८१ ८२ स्थानांग ४/६६ वही ४/६९ वही ४/९८ " शतक ६३ योगशास्त्र ७/२-६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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