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________________ शासन प्रभावना के स्वरूप को आपने विस्तृत आकार प्रदान किया है। वे सदा आत्म प्रदर्शन से दूर रह कर आत्मसात करने में रुचि रखती रही। उन्होंने अपनी यात्रा में तीव्रता समा दी। वे हम सभी को आँखों से भी ओझल होकर अग्रसर हो गई। उनका भावात्मकपक्ष सराहनीय/ प्रशंसनीय ही बना रहेगा। उनकी दी गई प्रेरक सीख से जन मानस की आस्था ऊर्जा में नवीन उद्भावनाएं प्रस्फुरित होती रहेगी। मेरी ओर से उनके प्रति इन स्मृति पलों में सम्यक भावांजलि का उमड़ता /मुखरता सैलाब महाभाग, शासन पुत्री, वयोवृद्धा महासतीवर्या श्री कानकुवंरजी म. की विरागी वेदिका पर सादर समर्पित है। दिवंगता महासतीजी म. के सुयोग्य शिष्या मंडल से सत्व स्नेह सहित अनुशंसा है कि वे अपनी महामना श्रद्धेया गुरुवर्याश्री के व्यक्तित्व प्रभावना को लक्ष्यगत रखते हुए जय परम्परा की पावनतम वैजयंती फहराने में सर्वांगीण कुशल क्षमता से परिपूरित है। उनकी स्मृति थाती, विश्व की अनिर्वचनीय शोभा बनें। समर्पित साधिका • श्री अजित मुनि. रतलाम (म.प्र.) चतुर्विध संघ की स्थापना तीर्थ प्रवर्तन की स्थापना प्रक्रिया है। यही संघ तीर्थ महिमावंत होता है। संघ माहात्म्य की ओजस्विता का स्वरूप उसकी शाश्वत मर्यादा में दृष्यमान है। इस मर्यादा-महक से जब भी प्राणी अनुप्राणित होता है, तो उसकी शक्ति उज्ज्वलता सर्वोपरि पावनतम स्थिति की उपलब्धि कर लेती है। यही आराधना/ उपासना का मोक्ष का मार्ग है मोक्ष मार्ग के यात्रिक के सम्मुख प्रत्येक प्रकार के पल अपनी क्षमता के दल-बल के साथ आते है। किन्तु साधक हर प्रसंग पर अपनी साम्यभाविता के बेजोड़ निखार से अपनी स्वयं सिद्ध अपराजेयता प्रमाणित कर देता हैं। ऐसी विरलतम सा नी से विश्व चकाचौध हो जाता है। इसे हमारी छद्मस्थ दृष्टि चमत्कार मान लेती है। संघ प्रवृत्ति सदा से संयम निष्ठागत विधि निषेध के माध्यम से संचालित रही है। जब उपासना सम्मत जीवन में आचार ऊर्जा प्रस्फुटित होती है, तो उसकी ऊँचाई/गहराई। अमाप होती है। गणनीय अंक का तो प्रश्न ही नहीं होता है। इस प्रवृत्ति प्रवाह का आचमन, लक्ष्य संकल्प सिद्धि को परिपुष्ट ही करता है। ऐसे व्यक्ति के लिए बाधा का कोई अर्थ ही नहीं होता है। वह अपने ध्येय पथ पर दृढ़ गति से अग्रसर होता ही चला जाता है। वहाँ पीछे छूटे हुए से अपना कोई लगाव नहीं रखता हैं। फिर आत्मतत्व की उत्कर्षणमयता में लवलीन हो जाना ही शेष विकल्प बचा रहता हैं। यही समग्रता की सम्पूर्णता है। संघ सदस्य उसके संविधान की सक्रियता से संपक्त रहता है। भगवान महावीर के इस चतुर्विध संघ में तहगत किंचित भी भिन्नता नहीं पाई जा सकती हैं। सैद्धांतिक आचरणगत जो नियम पुरुष के लिए हैं। वही नियमाधिकार नारी के लिए भी सुरक्षित है। धार्मिक व्यवहार में मूलतः भेद-रेखा का कही भी विभाजन नहीं है। यह एक गौरवान्वित विशिष्ट तथ्य है। जयगच्छीय गुरुपरम्परा के पथ चिन्हों पर आगत स्वनामधन्य महासती श्री चम्पाकुवंरजी म. की स्थान (११) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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