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________________ १- धर्मास्तिकाय! ४- जीवास्तिकाय! २- अधर्मास्तिकाय! ५- पुद्गलास्तिकाय! ३- आकाशास्तिकाय! ६- काल! इन द्रव्यों का लक्षण एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न है। द्रव्य वह है, जो निश्चित रूप से सत् है। सत् और द्रव्य इन दोनों का तादात्म्य सम्बन्ध है। जो कुछ है, वह सत् है। जो सत् नहीं है, उस का अस्तित्व भी संभव नहीं है। जो असत् है। वह भी तो असत् रूप से सत् है। संक्षेप में असत् ही सत् हो सकता है। क्योंकि असत् सत् का निषेध है। सर्वथा असत् की परिकल्पना भी संभव नहीं है। जो कल्पना तीत है। उस का असत् रूप से परिबोध भी संभव नहीं है। गुण और पर्याय में भेद-विवक्षा कर के द्रव्य का लक्षण इस प्रकार है -जो गुण पर्यायवान् है, वह द्रव्य है। जो उत्पाद, व्यय और धौव्य से युक्त है, वह सत् है, जो सत् है वह द्रव्य है। जिस में पूर्व पर्याय का विनाश ' हो, और उत्तर पर्याय का उत्पाद हो, वह द्रव्य है। जो किसी द्रव्य के आश्रित रहते हैं, वे गुण हैं तथा स्वयं निर्गुण हों, वे गुण हैं। अर्थात् जिसमें दूसरे गुणों का सद्भाव न हों, वास्तव में गुण द्रव्य में रहते हैं। जो द्रव्य और गुण इन दोनों के आश्रित रहता है। वह पर्याय है। जो उत्पन्न होता है, विनष्ट होता है तथा समग्र द्रव्य को व्याप्त करता है। वह पर्याय है। जो समस्त गुणों और द्रव्यों में परिव्याप्त होते हैं। वे पर्यक या पर्याय कहलाते हैं। द्रव्य का जो सहभावी है, वह गुण है, और जो क्रम भावी धर्म है, वह पर्याय है। ५ द्रव्य की परिभाषा में, उत्पाद और व्यय के लिये “पर्याय" शब्द का प्रयोग हुआ है और धौव्य के लिये “गुण” शब्द प्रयुक्त है। द्रव्य में गुण की सत्ता द्रव्य की नित्यता का प्रतीक है और पर्याय द्रव्य की परिवर्तन शीलता को सूचित करता है। द्रव्य की उत्पाद और व्यय की प्रक्रिया सर्वथा नैसार्गिक है। । उक्त षट् द्रव्यों में जीवास्तिकाय जीव है और पाँच द्रव्य अजीव है। यह वर्गीकरण जीव और अजीव के आधार पर हुआ है। रूपी और अरूपी को संलक्ष्य में रख कर जो वर्गीकृत रूप हैं, वह यह है -जिन में, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श ये चारों पाये जाते हैं वे रूपी हैं और वे सडन-गलन, विध्वंसन स्वभाव से समन्वित हैं, इस के विपरीत इन लक्षणों से विहीन द्रव्य के जो पाँच भेद हैं, इनमें पुद्गलास्तिकाय नामक द्रव्य रूपी हैं, रूपी को “मूर्त" भी कहा जाता है। क- तच्वार्थ सूत्र- अ-५ सू- २९ ख- विशेषावश्यक भाष्य-गाथा- २८! क- उत्तराध्ययन सूत्र अ. २८ गा.६ ख- तत्तवार्थ सूत्र- अ-५ सू-४! क- नयप्रदीप पत्र-९९! ख- बृहद् वृत्ति- पत्र- ५५७! ग- न्यायालोक तत्त्वप्रभा वृत्ति- पत्र २०३! क- पंचास्तिकाय- वृत्ति- १६/३५/१२! ख- श्लोक वार्तिक- ४/१/३३/६०! (३५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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