________________
आत्मा की सर्वश्रेष्ठ अवस्था सिद्धावस्था है अथवा यह भी कहा जा सकता है कि सिद्धावस्था जीव मात्र के पुरुषार्थ की चरम निष्पत्ति है। इसको प्राप्त करने में अन्य लिंग धारण करने से कोई बाधा नहीं पड़ती है । वशर्ते व्यक्ति जितेन्द्रिय हो, शान्तं दान्त हो उसने कषायों को जीत लिया हो विस्तार से उसी को स्पष्ट समझने के लिए यशोविजयजी और अध्यात्मसार की वाणी सुनिये
अपि भिन्न क्रिया भिन्न वेषा भिन्न परम्परा । चित्तोपशम संलग्नाः संति जैनेन्द्र शासने ॥
-
जितेन्द्रिया जित क्रोधा दान्तात्मो महायशाः। परमात्म गतिं यान्ति विभिन्नै रपिवर्त्य भिः॥ अन्य लिंगादि सिद्धानामाधार समतैव हि ।
रत्नत्रय फल प्राप्तिर्यथा स्याद भाव जैनसा ॥
इतना ही नहीं जिन शासन में किसी वेष को धारण करने से अथवा किसी विशेष वाद में निपुणता प्राप्त कर लेने से मोक्ष प्राप्ति संभव नहीं मानी है किन्तु एक मात्र कषाय मुक्ति को ही मोक्ष प्राप्ति का साधन माना है
Jain Education International
नासाम्बरत्वे, न दिगम्बरत्वे न तत्वदे न चतर्क का दे। न पक्ष सेवा श्रयजेन मुक्तिः कषाय मुक्ति किल मुक्ति देव ।
जिनशासन में इसको पूज्य माना जाये और उसको पूज्य न माना जाये, यह संकीर्णता भी नहीं है और न अमूक को पूज्य माने जाने का दुराग्रह है, किन्तु यह कहा गया है कि दोष कलुष से मुक्त महानुभाव चाहे जिस मत के अनुयायी हों और जिस किसी भी नाम से जाने जाते हैं, वे वन्दनीय हैं। प्रसिद्ध जैनाचार्य श्री हरिभद्र सूरि ने इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए यहाँ तक कह दिया है - मुझे न तो महावीर के प्रति कोई पक्ष पात है, राग है और न कपिल आदि महर्षियों के प्रति द्वेष है। मैं गुण पूजक हूँ । अतएव जिस किसी के वचन युक्ति संगत हैं, वे ही आदरणीय हैं वन्दनीय हैं।
तो
-
पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेष कपिला दिषु ।
युक्ति मद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥
कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य एवं अन्य आचार्यों ने हरिभद्र सूरि के विचारों की और अधिक व्याख्या करते हुए कहा है -
-
भव बीजांकुर जनना रागाद्या क्षय मुपागता यस्य। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ वंदे साधु कलागुण निधिं ध्वस्त दोषं द्विषंतं । बुद्धं वा वर्धमानं वा
शतदल निलयं केशवं वा शिवंवा ॥
इसका अर्थ सुगम है लेकिन इनमें भव बींजाकुर क्षय मुपागता यस्यः और ध्वस्त दोषं द्विषन्तं यह दो पद महत्व पूर्ण है जो जिन और जिन शासन की विशेषता का संकेत करते हैं।
(२८)
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org