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________________ जिन और जिनशासन-माहात्म्य 888888888888888 • उप प्रवर्तक श्री सुकनमल (श्रमण संघ सलाहकार) 50000000000000000 जिन शासन माहात्म्यं प्रकाश स्यात् प्रभावना। जिन शासन की महिमा के प्रकाशन करने को प्रभावना कहते हैं। उक्त सन्दर्भ में प्रश्न उपस्थित होता है कि जिन कौन और जिन शासन किसे कहते हैं और उनकी क्या महिमा है? शाब्दिक व्युत्पत्ति के अनुसार इनका अर्थ किया जाय तो जयतीति जिनः तस्य शासनम् जिनशासन जो जीतता है वह जिन और उसका शासन जिन शासन है। उसकी विशेषताओं के कथन करने को महिमा कहते हैं। लेकिन इस सामान्य अर्थ को ग्रहण करके प्रचार-प्रसार की ओर अग्रसर हो जायें तो ऐसे सभी सामान्य व्यक्ति जिन कहलाते के पात्र माने जायेंगे जिन्होंने अपने से निर्बल व्यक्ति को पराजित किया हो और उसकी झूठी सच्ची विरुदावली गाने लगें। लेकिन आप ही नहीं साधारण से साधारण व्यक्ति भी न ऐसा मानेगा और न कुछ करने के लिए तैयार होगा। अतएव यह उचित होगा कि हम व्यंजना और लक्षणा विधि का अनुसरण कर यथार्थ जिन और उसके शासन को स्पर्श करें। - जिन का स्वरूप - “जयति राग द्वेषादि शत्रुन् इति जिनः" जो राग-द्वेष आदि आत्मा के शत्रुओं को जीतता है उसे जिन कहते हैं। राग-द्वेष आदि आत्मा के शत्रु क्यों कहलाते हैं जबकि उनका भी अवस्थान स्वयं आत्मा है? इसका उत्तर यह है कि वे आत्मा के मूल स्वभाव नहीं हैं। मूल स्वभाव तो आत्मा का अनन्त ज्ञान दर्शन सुख आदि रूप है। वे सब उसके असाधारण धर्म हैं। संक्षेप में इसी बात को इस रूप में कहा गया है -जीवो उवयोग लक्खणं- जीवन का लक्षण उपयोग है। उपयोग वह चैत्यन्यानु विधायी परिणाम है जो ज्ञान दर्शन आदि अनन्त गुणों का समुदाय है। यद्यपि राग-द्वेष आदि आत्मा से सम्बद्ध है तथापि वे आगन्तुक हैं पर हैं। इसीलिए उनको वैभाविक भाव कहा जाता है और वैभाविकता के कारण उनको आत्मा का शत्रु कहा गया है। राग-द्वेष आदि को आत्मा का शत्रु मानने का एक कारण यह भी है कि ये जीवन के लिए जन्म मरण रूप संसार के हेतु हैं जिससे आत्मा अपने निज स्वरूप और त्रिलोक व त्रिकालवी जीव आदि पदार्थों को देख. जान नहीं पाती है. सर्वज्ञ. सर्वदर्शी नहीं कहला सकती, निराबाध सख का अनुभव नहीं कर माती है। गीता में भी उक्त आशय को अपने शब्दों में इस प्रकार कहा है जिससे शब्द भित्रता होते हुए भी अन्तर्निहित भाव प्रायः समान है - रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णा सङगसमुद्भवम्। तन्निब्धनाति कौन्तेय कर्म सङगेन देहिनाम्॥१४॥७॥ (२२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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