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________________ इस सब कारणों से भेदविज्ञान और समतायोग का अविनाभावी संबंध है। भेदविज्ञान होगा वहाँ समतयोग अवश्य सिद्ध हो सकेगा और समतायोग होगा वहाँ भेदविज्ञान होना अवश्यम्भावी है। भेदविज्ञान का संक्षिप्त अर्थ है “यह शरीर मैं हूँ, यह जो जन्म जन्मान्तारों का संसार है, संकल्प है, उसे तोड़ना। यह शरीर भिन्न है, इस प्रकर की भिन्नता का अनुभव होना ही भेदविज्ञान है। समभाव अध्यात्म दर्शन का सार है। जीवन में जितनी चिन्ता है, विषयभाव है, उसकी उपशांति का सर्वोत्तम भाव है समभाव। यही समंत्वयोग का अन्त:दर्शन है। . चिंतन कण • सत्य एक विशाल वट वृक्ष है उसकी ज्यों-ज्यों सेवा की जाती है त्यों-त्यों उसमें अनेकों फल नजर आने लगते हैं। • सत्य एक छोटी सी चिनगारी है जो असत्य के पहाड़ को भस्मीभूत करने में सक्षम है। • असीम अंधकार को दीपक की छोटी सी लौ समाप्त कर देती है। उसी प्रकार झूठ के अम्बार को सत्य की एक चिनगारी धराशयी कर देती है। • असत्य के काफूर होते ही सत्य की ज्योति प्रकट हो जाती है। • अम्बर के चमकीले तारों की अपेक्षा धरती के महकते पुष्प को अधिक स्नेह दो। • सोना आग में तपकर निखरता है। सत्यनिष्ठ मानव में जितना सत्यता का समावेश होता है उतना ही सत्य का भाव उसे आत्मसात होने लगता है। • सत्य न खरीदने की चीज है: न बेचने की, सत्य तो आचरण में लाने की चीज है। • सत्य का फल अन्त में मीठा होता है। • परमविदुषी महासती श्री चम्पाकुंवरजी म. सा (२१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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