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________________ मानवती भी कर्म सिद्धान्तानुसार अशुभकर्मक्षय से मिलती है ___ यद्यपि प्रत्येक धर्म सम्प्रदाय ने आध्यात्मिकता की दिशा में सर्वभूतहित पर ध्यान दिया है, तथापि उसका प्रथम पड़ाव सर्व मानवहित है। सर्वमानवहित मानवता की परिधि में आता है, जो नैतिकता का आवश्यक अंग है। भगवान् महावीर ने नैतिकता के सन्दर्भ में दुर्लभता के चार अंगों में मानवता = मनुष्यत्व को प्रथम दुर्लभ अंग बताया है। साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि विविध कर्मों से कलुषित जीव देव, नरक, तिर्यश्च और असुरयोनियों तथा मनुष्यगति में भी कभी चाण्डाल, शूद्र वर्णसंकर तथा क्रूर क्षत्रिय होता है, तो कभी कीट, पतंग, चींटी, कुंथु आदि योनियों में कर्मों के वश सम्मूढ़ हो कर अमानुषी योनियों में प्राणी नाना दुःख, संकट और पीड़ा पाता है। कदाचित् पुण्योदय से क्रमशः अशुभकर्मों का क्षय करके जीव तथाविध आत्मशुद्धि प्राप्त करता है और तब मनुष्यता को ग्रहणा स्वीकार करता है। २७ देवदुर्लभ मनुष्यत्व : नैतिकता का प्राण और प्रथम अंग ___कितनी दुर्लभ और कठिन है, मनुष्यता जो नैतिकता का प्रथम अंग है? भगवान् महावीर ने जैनकर्म सिद्धान्त की दृष्टि से मनुष्यता की दुर्लभता का विश्लेषण किया है। इसी से समझा जा सकता है कि नैतिकता के सन्दर्भ में जैन कर्म सिद्धान्त की कितनी उपयोगिता है? __नैतिकता का प्राण मानवता है। तथा उसके अन्य अवयव हैं -न्याय, नीति, मानवमात्र के साथ भाईचारे का व्यवहार, अपने ग्राम, नगर, राष्ट्र, पड़ौसी और परिवार आदि के साथ सुख-दुःख में सहायक बनना, अपने कर्तव्य का पालन, ले-दे की व्यवहारिक नीति आदि। नैतिकता का पालन न होने पर कैसी कैसी कठिनाइयाँ और विपत्तियाँ आती हैं? कर्म सिद्धान्त की दृष्टि से वर्तमान में इसका प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है। नैतिकता का उल्लंघन या पालन वर्तमान में ही शुभाशुभ फलदायक नैतिकता का या नीति नियमों का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को कर्म सिद्धान्त के अनुसार कितनी विपन्नता, उपेक्षा, अवहेलना, कर्तव्य विमुखता, दुःख-दारिद्रय का सामना करने का शिकार होना पड़ता है, इस के ज्वलन्त उदाहरण वर्तमान मानव जीवन में देखे जा सकते हैं। २७. (क) “चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीय जंणुणो, माणुस्तं सुई सच्छा, संजमझिय वीरियं।” १॥ (ख) समावन्नाण संसारे नाणाआगोत्तासु जाइसु कम्मा नाणाविहा कुटु पुढो निसं मिया पया॥२॥ श्रएगयादेव लोगेसु नरएसु वि एगमा। एगमो आसुरंकायं अहाकम्मेहिंगचाई॥३॥ एगमाखत्तिओ होई, तओ चांडाल-वुक्कसो। तओ कीड पयंगोम, तओकुंभु पिवीलिया॥४॥ एवभावट्टजोशिसु पाणिणो कम्मकिलिसा, न निविज्जंति संसारे सव्वहेस व खत्तिया॥५॥ कम्मसंगेहि सझूठा दुक्खियाबहुवेमणा। अमाणुसासु जोणीस विणिहम्मति पाणिते॥६॥ कम्माणन पहाणाए आणुपुव्वी कमाइउ। जीवा सोहिमणुपत्ता आययति मणुस्सयं॥७॥ - उत्तराध्ययन सूत्र ३१३ गा.१ से ७ तक (१०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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