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________________ इनकी दूसरी रचना सोमसिद्धि निर्वाण गीतम् है। इसमें १८ पद्य हैं। रचना के अनुसार सोमसिद्धि का प्रारम्भिक नाम संगारी था। ये नाहर गोत्रीय नरपाल की पत्नी सिंगादे की पुत्री थी। वोथरा गोत्रीय जेठा शाह के पुत्र राजसी से इनका विवाह हुआ था। १८ वर्ष की आयु में इन्होंने दीक्षा ली। ये लावण्यसिद्धि के पद पर प्रतिष्ठित हुईं। इनके बाद कवयित्री हेमसिद्धि पट्टधर बनी।यह रचना कवित्वपूर्ण है। इसमें कवयित्री का सोमसिद्धि के प्रति गहरा स्नेह और भक्तिभाव प्रकट हुआ है। रचना की पंक्तियाँ देखिये - .. मोरा नइ वलि दादुरां बावीहा नइ मेहोरे, चकवा चिंतवत रहइ, चंदा उपरि नेहो रे॥१६॥ दुखीयां दुख भांजीयइ, तुम्ह बिना अवरन कोइरे। सह गुरुणी गुण गावीयइ, वांदउ दिन-२ सोई रे ॥१७॥ चन्द्र सूरज उपमा दीजइ (अधिक) आणं दो रे। पहुतीणी हेमसिद्धि इम भणइ देज्यो परमाणं दो-रे॥१८॥ ४. विवेक सिद्धि - ये लावण्यसिद्धि की शिष्या थी। नाहटा जी ने ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह के पृ. ४२२ पर उनकी एक रचना विमल सिद्धि गीतम् प्रकाशित की है। इस रचना के अनुसार विमल सिद्धि मुलतान निवासी माल्हू गोत्रीय शाह जयतसी की पत्नी जगतादे की पुत्री थी। बीकानेर में इनका स्वर्गवास हुआ-। रचना का आदि अंत इस प्रकार है - आदि भाग - गुरुणी गुणवन्त नमीजइ रे, जिस सुख सम्पत्ति पामीजइरे। दुख दोहग दूरि गयी जइ रे, पर भवि सुरसाथिरमी जइरे। अन्त भाग - विमल सिद्धि, गुरुणी, महीयइ रे, जसु नामइ वांछित लहीयइ रे। दिन प्रति पूजइ नर नारी रे, विवेक सिद्धि सुखकारी रे। ३९. विद्यासिद्धि - ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह के पृष्ठ २१४ पर इनकी एक रचना गुरुणी गीतम् । से प्रकाशित है। प्रारम्भ की पंक्ति न होने से गुरुणी का नाम ज्ञात नहीं हो सका है। बाद की पंक्तियों से सूचित होता है कि ये गुरुणी साउंसुखा गोत्रीय कर्मचन्द की पुत्री थी और जिनसिंह सूरि ने इन्हें पहुतणी पद दिया था। यह रचना संवत् १६९९ भाद्र कृष्णा-२ को रची गई है। १०. हरकूबाई - इनका सम्बन्ध स्थानकवासी परम्परा से रहा है। आचार्य श्री विनयचन्द ज्ञान भण्डार जयपुर में पुष्ठा सं. १०५ में ८८ वी रचना महासती श्री अमरुजी का चरित्र इन के द्वारा रचित मिलती है। इसकी रचना संवत् १८२० में किशनगढ़ में की गई। इन्हीं की एक रचना महासती जी चलरु जी सज्झाय नाम से नाहटा जी ने ऐतिहासिक काव्य संग्रह में पृष्ठ संख्या २१४-२१५ पर प्रकाशित की है। ११. हुलसा जी - यह भी स्थानकवासी परम्परा से सम्बन्धित है। आचार्य विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार, जयपुर में पुष्ठा सं. २१८ में ५० वीं रचना क्षमा व तप ऊपर स्तवन इनकी रचित मिलती है। इसकी रचना संवत् १८८७ में पाली में हुई थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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