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कलह का कारण बन जाती है। आज यदि नारी समाज में जागृति उत्पन्न हो जाये कि जैसा मैना सुन्दरी में, चन्दना ने, अंजना ने, कदम उठाया था वैसी धारणा कर ले तो निश्चित ही एक स्वस्थय समाज की कल्पना संभव है।
एक समय ऐसा भी आया कि नारी हीन दीन घोषित कर दी गई। पर उस बीच में भी नारी ने अपनी बौद्धिक विचारधारा के बल पर पुरुषों के भी छक्के छुड़ा दिये। सांस्कृतिक वातावरण एवं सामाजिक क्षेत्र के विकास में नारियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। कुण्ठाओं से परे होकर नारी ने विश्व क्षितिज पर मिथ्या मान्यताओं को समाप्त किया। साधु जीवन को स्वीकार करके नारी ने अपनी गरिमा को बढ़ाया। आज जब हम यह देखते हैं कि हमारी श्रमण संस्कृति में जितने श्रमण संघ हैं। उन सभी में श्रमिणों की संख्या, आर्यिकाओं की संख्या, ब्रह्मचारी बहनों की संख्या अत्यधिक देखी जा सकती हैं यह इसलिए नहीं कि उन्हें परिवार में कष्ट था, समाज में दुःख था या नारी के रूप में उचित सम्मान नहीं मिला था। अपितु वे इस कार्य क्षेत्र में इस भावना को लेकर उतरी है कि जो आज हमारे समाज में, सामाजिक क्रान्ति पुरुष वर्ग नहीं ला सकता है वह सामाजिक, क्रान्ति हम धार्मिक क्षेत्र में उतरकर नारी में आस्था के, श्रद्धा के एवं विश्वास के अंकुर पैदा कर सकते हैं। समाज में जो कुदेव, कुगरु, और कुशास्त्र की प्रथा प्रचलित है उसे यदि कोई मिटा सकता है तो घर में रहने वाली गृहिणी ही मिटा सकती है। आचार्य जिनसेन ने आज से लगभग एक हजार वर्ष पहले यह बात स्पष्ट कर दी थी कि तप, साधना, एवं व्रत आदि करने में और मिथ्या मान्यताओं को दूर करने में नारियाँ अधिक आगे है। स्वयंप्रभा, विपुलमति, ने गृहिणी धर्म का पालन करते हए परिवार में धर्म के अंकर अंकरित किये। प्राकृत कथानकों में एक कथानक यह आता है कि एक पत्नी अपने पति अपनी सास एवं श्वसर को अधिक उम्र का होते हए भी बहत कम उम्र का बतलाती है। श्वसुर क्रोधित होते हैं। पर वह उनकी मिथ्या मान्यताओं का खण्डन करती हुई कहती है कि जो व्यक्ति जितना संस्कारित, जितनी उम्र से हुआ है वह उतनी ही उम्र का है। कहने का तात्पर्य यह है कि संस्कार से व्यक्ति अच्छा बनता है और उसी से उसकी उम्र नापी जाती है।
इसी तरह से एक यह भी दृष्टान्त आता है कि एक मनुष्य था जिसके दर्शन करने से भोजन भी प्राप्त नहीं होता था। राजा को भी भोजन प्राप्त नहीं होता। तब वह राजा उस व्यक्ति को मृत्युदंड की सजा सुना देता है। उस प्रसंग में सजायुक्त व्यक्ति यह कथन करता है कि मेरे मुख देखने से किसी को भोजन नहीं प्राप्त होता है। परन्तु राजा के मुख देखने से मुझे मृत्युदंड दिया जा रहा है। यह उदाहरण अंध विश्वास का है। कामायनी में एक हृदयगत् भावना इस प्रकार है।
तुम भूल गये पुरुषत्व मोह, कुछ सत्ता है नारी की।
समरसता सम्बंध बनी, अधिकार और अधिकारी की। अंध विश्वास को कुप्रथा, कुरीतियाँ एवं अशुभ विचार को संज्ञा दी जाती है। अंध विश्वासों में जादू टोना, मणि, मंत्र-तंत्र विशेष रूप से आते हैं जिन्हें आज भी समाज में देखा जाता है। यदि कोई बुरा कार्य हुआ तो मंत्र-तंत्र की ओर हमारी दृष्टि चली जाती है, पर इससे कितनों को फायदा हुआ। नारियों की थोथी मान्यताओं को नारियों के द्वारा ही जागृति पैदा करके दूर किया जा सकता है।
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