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________________ बैठे-बैठे ही उनकी अन्तश्चेतना, ऊर्ध्वारोहण करने लगती है और वह वायावी भावनाओं से ऊपर उठकर शुद्ध चैतन्य में लीन हो जाती है, उसी आसन पर बैठे-बैठे वह कैवल्यज्ञान और सिद्ध गति प्राप्त कर लेती जैन धर्म में तीर्थकंर का पद सर्वोच्च माना जाता है। श्वेताम्बर, परम्परानुसार मल्लि को स्त्री तीर्थकंर के रूप में स्वीकार करके यह उद्घोषित किया कि आध्यात्मिक विकास के सर्वोच्च पद की अधिकारी नारी भी हो सकती है। उसमें अनन्त शक्ति सम्पन्न आत्मा का निवास हैं। माता मरूदेवी और तीर्थकंर के दो ऐसे जाज्वल्यमान उदाहरण श्रमण संस्कृति ने प्रस्तुत किये हैं, जिनके कारण नारी के सम्बन्ध में रची गई, अनेक मिथ्या धारणाएं स्वत: ध्वस्त हो जाती है। - भगवान् ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी और सुन्दरी मानव जाति की प्रथम शिक्षिकाओं के रूप में प्रतिष्ठित हैं। जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति, आवश्यकचूर्णि व आदि पुराण आदि में इन्हें मानव सभ्यता के आदि में ज्योतिस्तम्भ माना है। ब्राह्मी ने सर्वप्रथम अक्षरज्ञान की प्रतिष्ठापना की तो सुन्दरी ने गणितज्ञान को नूतन अर्थ दिया है। प्रथम शाश्वत साहित्य के वैभव की देवी है, तो दूसरी राष्ट्र की भौतिक सम्पत्ति के हानिलाभ का सांख्य उपस्थित करती है। दोनों ने सांसारिक आकर्षणों को ताक पर रखते हुए आजन्म ब्रह्मचारिणी रहकर मानव जगत के बौद्धिक विकास की जो सेवा की है, वह स्वर्णाक्षरों में अंकित है। भगवान् ऋषभदेव ने नारी के उत्थान हेतु जिन चौंसठ कलाओं की स्थापना की है, उनमें दोनों आजन्म कुमारियाँ निष्णात थी। नारी इस सृष्टि की प्रथम शिक्षिका है, वहीं सर्वप्रथम विश्व रूपी शिशु को न केवल अंगुली पकड़कर चलना सिखाती है, अपितु गिरकर फिर उठकर चलने का पाठ भी पढ़ाती है। आवश्यकचूर्णि में ब्राह्मी और सुन्दरी द्वारा मुनि बाहुबलि को प्रतिबोध देने का उल्लेख है। प्रकृति से कोमल होने के कारण उसका उपदेशिका रूप विशिष्ट प्रभाव उपस्थित करता है। बाहुबलि संयम के पथ पर चलकर भी अभिमान के मद से. मुक्त नहीं हुए थे। भगिनी द्वय ने उनके अभिमान को चूर कर सन्मार्ग पर प्रशस्त किया था। उनका स्वर था: __ “वीरा म्हारा गज थकी नीचे उतरो। गज चढ्या केवली न होसी रे॥” भगिनी द्वय का उपदेश सुन करके उनके अन्तर के द्वार खुले और अहंकार निशेष हो गया। उत्तराध्ययन और दशवैकालिक की चूर्णि में राजमति के अडिग संकल्प और दिव्यशील का वर्णन है। यादव युग की नारी राजुल की अरिष्टनेमि के साथ सगाई हो चुकी थी, विवाह के लिए बारात आ गयी थी। सहसा तोरण पर से वर लौट गये और राजुल परित्यक्ता हो गयी। परित्यक्ता होने पर वह भी टूटी नहीं। अपितु राजमहल के वैभव को छोड़कर त्याग के पथ पर चल पड़ी। उसके संयम के सामने रैवताचल की सूनी घाटियां भी विस्मित थी। उधर रथनेमि संयम के पथ पर चलते हुए भी वासनाओं के लाल डोरों से स्वयं को मुक्त न कर सके थे। रैवताचल की अन्धकाराच्छन्न एकान्त गुफा में भीगे वस्त्रों में राजमति को देखकर वासना का सर्पदंश के लिये तैयार था। राजमति के भीगे सौन्दर्य को देखकर वह संयम के आकाश से वासना की धरती पर तड़पने लगे थे। जब राजमति ने रथनेमि को पतन के गर्त में (४०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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