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________________ उस काल में नारियों का आत्मिक विकास भी बहुत ऊँचा था। सामाजिक, धार्मिक व राजनैतिक क्षेत्र में स्त्रियों को समान अधिकार था। अपनी विद्वत्ता एवं प्रतिभा के संस्कार अपनी सन्तान पर अंकित कर वे उन्हें पूर्ण गुणवान तथा नीति मान बना देती थी। धर्मपरायणा सती साध्वी तथा आत्मविश्वास से परिपूर्ण नारियों का मनोबल इतना दृढ़ होता था कि पुरुष उनकी अवहेलना नहीं कर पाते थे। कृष्ण और सुदामा मित्र थे। वे बचपन में साथ-साथ पढ़े थे। बड़े होने पर कृष्ण तो द्वारिका के महाराज बन गये पर सुदामा एक दरिद्र ब्राह्मण ही बने रहे। यद्यपि वे विद्वान और भक्त थे। उनकी पत्नी बड़ी पतिपरायणा थी। प्रायः सुदामा उससे अपने बचपन की, तथा कृष्ण से मित्रता की चर्चा किया करते थे। एक दिन उनकी पत्नी ने सुदामाजी से द्वारिका जाने के लिए आग्रह पूर्वक कहा। उन्हें समझाया कि जब श्रीकृष्ण जैसे आपके मित्र हैं तो फिर आप इतनी तकलीफ में क्यों दिन व्यतीत कर रहे हैं? सुदामा सन्तोषप्रिय भक्त थे। उन्हें धन की आकांक्षा रंच मात्र भी नहीं थी। प्रभु की भक्ति से ही उनका हृदय परिपूर्ण था। उन्होंने पत्नी से कहा - मेरे हिये हरि के पद पंकज, बार हजार ले देखु परिच्छा। औरन को धन चाहिये बावरि, ब्राह्मण को धन केवल भिच्छा। पर बावली पत्नी मानी नहीं। वह स्वयं तो कष्ट उठा सकती थी पर पति के कष्ट से उसका हृदय व्यथित रहता था। फिर बोली - द्वारका लौ जात पिए! ऐसे अलसात तुम, काहे को लजात भई कौन सी विचित्रई। जौ पै सब जनम दरिद्र ही सतायो तो पैं, कौन काज आइ है कृपानिधि की मित्रई॥ यानि द्वारिका जाने में तुम्हें कितना आलस्य है प्रिय! जाने में लज्जा किस बात की है? मित्र के पास जाना कोई अनोखी बात है क्या? अगर सारा जीवन दरिद्रता में ही बीते तो फिर करुणा के सागर कृष्ण की मित्रता कब काम आएगी? बिचारे सुदामा फिर क्या करते? पत्नी को मधुर उपालंभ देते हुए द्वारिका जाने के लिए तैयार द्वारिका जाहु जू द्वारिका जाहु जू आठहू जाम यही झक तेरे। जो न कहो करिये तो बड़ो दुख जैए कहाँ अपनी गति हेरे॥ आठों पहर तूने तो 'द्वारिका जाओ, द्वारिका जाओ' की रट लगा रखी है। मेरी इच्छा तो नहीं है मगर तेरा कहा न मानूं तो भी मेरी गति नहीं है। यही तो बड़ा दुःख है। इस प्रकार पत्नी की अवहेलना न करके सुदामा कृष्ण के पास गए। जैसा कि उनकी सती पत्नी का विश्वास था, उन्होने कृष्ण के द्वारा अत्यधिक आदर और स्नेह प्राप्त किया। वे अतुल वैभव के अधिकारी होकर लौटे। (२९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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