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________________ मुनिपुंगव बाहुबली आत्म-साधना में लगे हुए थे। अन्तर्मन में मान का गज तूफान मचा रहा था। स्थिर खड़े थे ध्यान मुद्रा में। फिर केवल ज्ञान-दर्शन से दूर थे। भ. :षमदेव द्वारा आज्ञापित ब्राह्मी-सुंदरी महाश्रमणी बाहुबली मुनि को प्रबोधित करने आई। बाहुबली मुनि की सेवा में पहुँचकर सविनय निवेदन किया - आज्ञापयाति तात स्त्वां ज्येष्ठार्य! भगवनिदम्। हस्ती स्कन्ध रूढानाम् स्खलं न उत्पद्यते॥ (त्रिषष्ठी श.च.) हे ज्येष्ठार्य! भ. ऋषमदवे का सामयिक उपदेश है कि हाथी पर बैठे साधक को केवल ज्ञान-दर्शन की प्राप्ति नहीं होती है। राजस्थानी भाषा में - वीरा मारा गज थकी उतरो, गज चढ़िया केवल न होसी ओ....। बाहुबली मुनि के कर्ण कुहरों में दोनों श्रमणियों की मधुर हितावही स्वर लहरी पहुँची। तत्काल मुनिवर सावधान होकर चिंतन करने लगे - “यह स्वर बहिन श्रमणियों का है। इनकी वाणी में भावात्मक यथार्थता है। मैं अभिमान-रूप हाथी पर बैठा हूँ। मस्तक मूंडन जरूर हुआ पर अभी तक मान का मूंडन नहीं किया। मुझे लघुभूत बनना चाहिये। अपने से पूर्व दीक्षित आत्माओं का मैंने अविनय किया है। मैं अपराधी हूँ। मुझे उनके चरणों में - जाकर सवन्दन क्षमापना करना चाहिये।” इस तरह विचारों को क्रियान्वित करने हेतु कदम बढ़ाया। बस देर नहीं लगी। केवल ज्ञान-केवल दर्शन पा लिया बाहुबली मुनि ने। श्रमाणियों द्वारा किया गया श्रमसार्थक हुआ। साध्वी राजमति अपने शरीर व वस्त्रों का संगोपन कर गंभीर-गर्जना युक्त वाणी से ललकारती हुई बोली “हे मुने रथनेमि! इस तरह असंयमी जीवन जीने की कामना के लिए तुम्हें धिक्कार है। इस तरह अपयश पूर्वक जीने की अपेक्षा तुम्हारा मरण श्रेयस्कर है। अगन्धक कुल का सर्प वमन किये हुए विष का पुनः वरण नहीं करता उसी तरह वमन की हुई मुझे तुम स्वीकार करना चाहते हो। तो तुम्हारी गति नदी के किनारे पर खड़े हड़ (एरण्ड) नामक वृक्ष की तरह होगी।" महाश्रमणी के शिक्षाप्रद ओजस्वी यशस्वी वचन रूप अंकुश से साधक रथनेमि का विकारी मन नियंत्रित हो गया। जैसे-अंकुश लगने पर हाथी वश में होता है। महाशक्ति -शौर्य-साम्य भाव सम्पन्न सम्राट् श्री कृष्ण वासुदेव की महारानियाँ पद्मावती - गौरीगान्धारी-लक्ष्मणा सुसीमा-जाम्बवती-सत्यभामा-रूक्मिणी-मूलश्री और मूलदत्ता और भी अनेकों रानियाँ, पुत्रवधुएँ, प्रपौत्र वधुएँ यादव वंश की ज्योत्स्नाएँ दीक्षित होकर श्रमणी-तपस्विनी बनी। कठोर तप-जप आराधना करके निर्वाण को प्राप्त हुई है। (१७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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