________________
भी वेश-परिधान में हो। सभी को समीचीन रूप में रत्नत्रय (मोक्ष मार्ग) साधना की आराधना का अधिकार है। वे जीव स्त्री रूप (लिंग) में हो चाहे पुरुष, बालक, युवक-युवती हों सभी मार्गानुसारी बन सकते हैं। उन्हें इसका अधिकार है। यहाँ यह जरूर निश्चित है कि भव्यता गुण वाला जीव ही सिद्धत्व पायेगा। क्योंकि वे आत्माएँ सम्यक् तत्व बोध रूप मोक्ष मार्ग साधना वीथी का ठीक तरह से श्रद्धान करती है। वाणी द्वारा यथा स्वरूप का प्ररूपण प्रकथन करते हैं। मन-वाक्-काय द्वारा स्पर्शन करते हैं। इसी कारण इन आत्माओं को मोक्षाभिलाषी या मोक्षाभिमुख कहा गया है।
___ साधना का महापथ न कोई छुई-मुई का पौधा है और न संकीर्ण जटिलता से पार किया जाये ऐसा पथ, न भाई-भतीजावाद के दलदल से लिप्त। साधना का राज-पथ (द्वार) सभी सम्यक् दृष्टि आत्माओं के लिए अतीत में खुला था। वर्तमान में है और भविष्य में खुला रहेगा अनंत काल पर्यंत।
इस संदर्भ में साधना के सुरम्य-सुभव्य उपवन में जिस तरह श्रमण-मुनि संघ रूप वृक्षों का अक्षय भण्डार देदीप्यमान रहा है। उसी तरह श्रमण उपवन संघ शासनोद्यान में श्रमणी-संघ रूप लताएँ भी अपने आप में गरिमा-महिमावान रही है। श्रमणी-समूह का प्रखर इतिहास सत्य - अहिंसा - संयम - शील - समता-सहिष्णुता-तप-त्याग की सौरभ से सुवासित रहा है। तीर्थंकरों द्वारा प्रस्थापित चतुर्विध संघोद्यान को यशस्वी (सुरम्य) बनाने में साध्वी-समाज का अपूर्व योगदान अतीत के अनंत काल से रहा है। आगम निगम के पावन पृष्ठों पर ही नहीं, अपितु जन-जीवन के हृदय पटल पर अमिट रेखा के रूप में अंकित रहा है।
श्रमणी जगत का साधना मय जीवन जितना उपासना के क्षेत्र में अचल अकम्प रहा है उतना ही परीषहोपसर्ग विजेता भी। जितना स्वयं के लिए जागृत रहा है, उतना ही पर-कल्याण प्रेरक भी। संयम-वैराग्य में जितना अग्रगण्य रहा है उतना ही बहिरंग अंतरंग तप विधि में भी तेजस्वी तपोमय। जितना निर्मल-निर्ममत्व-निरंहकार निर्लेप रहा है उतना ही विनय विवेक आत्म-विज्ञान में उन्नायक ऊर्ध्वमुखी भी। जितना पठन-पाठन से सक्रिय रहा है उतना ही चिंतन मनन-मंथन में तत्पर भी। जितना मृदु-मधुर वृत्तिवाला रहा है षट् काया के लिए उतना ही संयम स्व मर्यादा में कठोर भी। आचार-विचार व्यवहार की पावन गंगा में विशुद्ध होता रहा है, उतना ही ज्ञान-क्रिया का संगम स्थल-तीर्थ स्थल भी और जितना अपने उत्तर- दायित्व और कर्तव्यों के प्रति निर्वाही व कुशल रहा है उतना ही संघ के प्रति समर्पित भी।
वस्तुतः श्रमण संस्कृति के अणु-अणु और कण-कण में जो प्रभाव मुनि-श्रमण संघ का रहा है वैसा ही अद्वितीय अनूठा प्रभाव गौरव श्रमणी जगत का भी बरकरार रहा है। जिनवाणी के प्रचार-प्रसार-प्रभावना में अतीत की महान श्रमणियों का श्लाघनीय योगदान रहा है। विधि-निषेध का कार्य क्षेत्र जो श्रमणों का रहा है वही श्रमणी जगत् का। विविध प्रकार के तप-त्यागमय प्रवृत्ति में साध्वी-समूह ने अद्वितीय कीर्तिमान स्थापित किया है। लोमहर्षक-प्राणघातक परिषह-उपसर्गों के प्रहार जितने श्रमणी जगत् ने सहे हैं। प्राणों की कुर्बानी देकर भी धर्म को बचाया। शील-संयम की रक्षा की ओर इतनी सुदृढ़ रही कि आततायियों को घुटने टेकने पड़े हैं। यहाँ तक कि मनुष्य ही नहीं, पशु-दैविक जगत् भी श्रमणी जीवन (चरणों में) के सम्मुख नत मस्तक हो गया।
___ भगवान ऋषमदेव के संघ में तप-त्याग की अमर ज्योति स्वरूप प्रमुखा श्रमणी रत्ना ब्राह्मी-सुन्दरी ने अपने कर्तव्यों की बेजोड़ भूमिका निभाई है। वह कार्य-कुशलता किसी अधिकारी साधक-श्रमण के समान ही महत्व पूर्ण रही है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org