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यह सुन कर करकण्डू राजा का हृदय पिता के प्रति श्रद्धावनत हो गया। उसने श्रद्धावश कहा -'मैं अभी जाता हूँ, पिताजी के चरणों में पड़ कर उनसे क्षमा मांगता हूँ।”
उधर पद्मावती महासती भी शीघ्रातिशीघ्र राजा दधिवाहन के खेमे में पहुँची और बात-बात में उसने कहा “करकण्डू चाण्डालपुत्र नहीं, वह आपका ही पुत्र है। मैं ही उसकी माँ हूँ।” यह कह कर रानी ने सारा रहस्योद्घाटन कर दिया। राजा दधिवाहन का हृदय पुत्र वात्सल्य से छलछला उठा। वह भी पुत्र-मिलन के लिए दौड़ पड़ा। उधर करकण्डू भी पिता से मिलने के लिये दौड़ा हुआ आ रहा था। पिता-पुत्र दोनों हार्दिक स्नेहपूर्वक मिले। पिता ने पुत्र को चरणों में पड़े देख हृदय से आशीर्वाद दिया।
इस प्रकार महासती पद्मावती की सत्प्रेरणा से दोनों जनपदों (देशों) में होने जा रहे भयंकर युद्ध का संकट भी टला और पिता-पुत्र दोनों के बीच स्नेह और शान्ति की रसधारा बह चली।
इस शान्ति और स्नेह की सूत्रधार थी, महासती पद्मावती। शान्ति की अग्रदूत सीता महासती
इसी प्रकार महासती सीता ने जब देखा कि पिता (राम) और उनके दोनों पुत्रों (लव और कुश) में भयंकर युद्ध की नौबत आ गई है। अगर मैंने बीच बचाव नहीं किया तो ये दोनों वीरपुत्र अपने पिता पर ही शस्त्रप्रहार कर बैठेगे। तब यह दोनों पक्षों की अशान्ति की आग व्यापक रूप धारण करके सारे कुल को भस्म कर देगी। अतः सीता झटपट अपने पुत्रों के पास पहुंची और समझाया कि बेटे! क्या कर रहे हो? जरा सोचो, किस पर शस्त्र प्रहार कर रहे हो? ये तुम्हारे पिता हैं! पहले तो वे दोनों झुंझलाये, परन्तु बाद में माता के कहने से रुक गए। उधर सीता ने रामचन्द्रजी से भी कहा-'नाथ! ये आपके ही पुत्र हैं। इन पर वात्सल्य बरसाने के बदले आप शस्त्र बरसा रहे हैं? इन्हें हृदय से लगाइए, आशीर्वाद दीजिए।" इस प्रकार कहने पर श्रीराम ने अपने दोनों पुत्रों को छाती से लगाया और आशीर्वाद दिया। युद्ध बंद हो गया।
यह था सीता महासती द्वारा युद्धबंदी द्वारा शान्ति का समयोचित उपक्रम! सती द्रौपदी की क्षमा ने दोनों कुलों का संघर्ष रोका
कौरवों और पाण्डवों का यद्ध चल रहा था। कभी वह किसी निमित्त को लेकर उग्र हो जाता. कभी मन्द। इसी दौरान एक दिन अश्वत्थामा ने रात्रि को जब पांचों पाण्डव तथा उनके पांचों नन्हें शिशु सोये हुए थे, उन्हें पाण्डव समझ कर वध कर डाला। द्रौपदी को जब पता लगा तो वह चित्कार उठी। सभी पाण्डव जग गए और अपराधी को खोजने लगे। भीम उसे पकड़ कर लाया। सबने कहा इसे द्रौपदी ही दण्ड देगी, क्योंकि इसने उसके हृदय के टुकड़ों का वध किया है। दौपद्री के सम्मुख अपराधी को प्रस्तुत करते हुए भीम ने कहा - "इस दुष्ट ने तुम्हारा भयंकर अपराध किया है, बोलो, इसे क्या दण्ड देना चाहिए।" द्रौपदी ने धीरत गम्भीरता पूर्वक विचार करके कहा -“इसे क्षमा कर दो। इसको मारने से इसकी मां को भी उसी प्रकार का दुःख होगा, जैसा मुझे अपने पुत्रों को इसके द्वारा मारने का दुःख है। अतः इसे छोड़ दो। अन्यथा, यह वैर की परम्परा आगे बढ़ेगी। इसके पक्षवाले आप से वैर का बदला लेंगे, फिर आपके पक्ष के लोग उनसे बदला लेंगे। इस प्रकार की हिंसा-प्रति हिंसा से अशान्ति की आग बढ़ेगी। दोनों पक्षों को शान्ति नहीं मिलेगी। इसलिए क्षमा से ही इस वैर का अन्त और शान्ति का साम्राज्य स्थापित हो सकता है।"
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