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कार्यों में भाग लेने का उन्हें कोई अधिकार न था। स्त्री कभी मोक्ष को नहीं प्राप्त कर सकती, ऐसी मान्यता थी। इसी तरह विवश नारी अपना तिरस्कृत जीवन सिसक-सिसक कर काट देती थी। तुलसी दास के शब्दों में -
ढोर गवार शूद्र पशु नारी।
यह सब ताड़न के अधिकारी॥ यानि इतना तिरस्कृत जीवन जीने को बाध्य थी - मैथिली शरण गुप्त ने भी कहा है -
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी॥ दुर्भाग्य से यदि छोटी उम्र में पति का वियोग हो जाए तो उसे अपने मृत पति के साथ जीवित ही जल जाना पड़ता, अर्थात 'सती प्रथा'। उस समय यह धारणा थी कि पति के साथ मरने पर मुक्ति मिलती है। इस कारण उसे सती बनने के लिए बाध्य किया जाता। न चाहते हुए भी लोगों के अपवाद के भय से उसे सती होना ही पड़ता। जीने की आशा में यदि कोई सती न भी होती तो एक विधवा के रूप में अमानवीय जीवन जीने के लिए उसे तत्पर रहना पड़ता। बाल मुंडवाकर सफेद वस्त्रों में लिपटी वह विधवा रूखा-सूखा भोजन कर दीन स्थिति में सारा जीवन व्यतीत करती थी। शुभ प्रसंगों में व धार्मिक कार्यों में विधवा स्त्री को अमांगलिक समझा जाता था।
साधना काल के बारहवें वर्ष में भगवान ने एक कठोर तप लिया, जिसमें १३ अभिग्रह समाविष्ट थे।
"एक राजकुमारी दासी बनकर जी रही हो, हाथ पाँव बंधे हो, मुंडित हो, तीन दिन की भूखी प्यासी हो, एक पैर देहली के बाहर और एक पैर अन्दर हो, आँखे सजल हो, इत्यादि। .
उनका यह अभिग्रह था तो आत्मशुद्धि के लिए, स्वयं के उत्थान के लिए परन्तु इस अभिग्रह ने नारी उत्थान को भी अत्यधिक संबल दिया, एक लाचार दीन दासता की बेड़ियों में जकड़ी हुई नारी का उत्थान हुआ।
. भगवान महावीर की दृष्टि में स्त्री और पुरुष दोनों का स्थान समान था। क्योंकि उन्होंने इस नश्वर शरीर के भीतर विराजमान अनश्वर आत्म तत्व को पहचान लिया था। उन्होंने देखा कि चाहे देह स्त्री का हो या पुरुष का वही आत्म तत्व सभी में विराजमान है। और देह भिन्नता से आत्म तत्व की शक्ति में भी कोई अन्तर नहीं आता सभी, आत्माओं में समान बलवीर्य और शक्ति है। इसीलिए भगवान फरमाते हैं -"पुरुष के समान ही स्त्री को भी प्रत्येक धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में बराबर अधिकार है। स्त्री जाति को हीन पतित समझना निरी प्रान्ति है।
इसीलिए भगवान ने श्रमण संघ के समान ही श्रमणियों का संघ बनाया, जिसकी सारणा-वारणा साध्वी प्रमुखा चन्दनवाला स्वयं स्वतन्त्र रूप से करती थी। भगवान के संघ में श्रमणों की संख्या १४००० थी तो, श्रमणियों की संख्या ३६००० थी। जहाँ श्रावकों की संख्या १५१००० थी, वहाँ श्राविकाओं की
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