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विश्व चेतना में नारी का गौरव
. • युवाचार्य डॉ. शिवमुनि
नारी समाज का केन्द्र बिन्दु है, बाल संस्कार और व्यक्तित्व निर्माण का बीज समाहित है, नारी के आचार विचार और व्यक्तित्व में। उन्हीं बीजों का प्रत्यारोपण होता है, उन बाल जीवों के कोमल हृदय पर जो नारी को मातृत्व का स्थान प्रदान करते हैं। समाज ने नारी को अनेक दृष्टियों से देखा है, कभी देवी, कभी माँ, कभी पत्नी, कभी बहन कभी केवल एक भोग्य वस्तु के रूप में उसे स्वीकार किया है। समाज की संस्कारिता और उसके आदर्शों की उच्चता की झलक, उसकी नारी के प्रति हुई दृष्टि से ही मिलती है। इस तरह नारी के पतन और उत्थान का इतिहास समाज में धर्म और नीति की उन्नति और अवनति का प्रत्यारोपण कराता है।
तो आइये, इतिहास के गर्त में जरा झांक कर देखें कि जिस समय २४वें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म हुआ, तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियां और नारी का उसमें स्थान और वहाँ से लेकर समय समय पर आए नारी के गौरव में परिवर्तन।
सामान्य जन जीवन जकड़ा हुआ है। झूठे जड़ रीति रिवाजों में सड़ी गली परम्पराओं में १ दृष्टि धुंधली हुई है, अन्ध विश्वासों की धूल से। मिथ्यात्व की अति प्रबलता है। लाखों मूक पशुओं की लाशें बलि वेदी पर चढ़ रही है। शूद्र जाति सामान्य मानवीय अधिकारों से वंचित है। समाज आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक दोनों दृष्टियों से पतन की ओर अग्रसर हो रहा है। इस विषम, सतधर्म के अधःपतन के काल में भावी तीर्थंकर राजकुमार वर्धमान का इस धरा पर पदापर्ण हुआ।
सतधर्म का ऐसा अधःपतन क्यों हुआ? मिथ्यात्व की ऐसी आँधी क्यों चली? इसका प्रमुख कारण नारी जाति की करुण दशा है। जैसे मनु ने कहा है -“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता" अर्थात जहाँ नारी की पूजा होती है। वहाँ देवता रमण करते हैं। अर्थात वहाँ मंगल का वास होता है। इसके विपरीत जहाँ नारीत्व का शोषण होगा, अपमान होगा, वहाँ अधर्म का साम्राज्य होगा। स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में कितनी सत्यता झलक रही है- “स्त्रियों की पूजा करके ही सब जातियाँ बड़ी हुई हैं। जिस देश, जिस जाति में स्त्रियों की पूजा नहीं होती, वह देश, वह जाति कभी बड़ी न हुई और न हो सकेगी। तुम्हारी जाति का जो अधःपतन हुआ है, उसका प्रधान कारण इन्हीं सब शक्ति मूर्तियों की अवहेलना। जिस समय राजकुमार वर्धमान का जन्म हुआ, वह नारी के जीवन का पतन का काल था। नारी का जीवन तमस् से घिरा हुआ व दासता से परिपूर्ण था। नारी को पैर की जूती से अधिक या भोग की वस्तु से अधिक
और कछ नहीं समझा जाता था। युद्धों में हारी हई सुन्दर सकुमारी स्त्रियों को किस प्रकार बाजारों में पशुओं की तरह बोली लगा कर बेच दिया जाता था। राजकुमारी चन्दनवाला उसका ज्वलंत उदाहरण है। कौमार्य में लड़की पिता पर, यौवन में पति तो वृद्धावस्था में पुत्रों पर आश्रित रहे ऐसा सोचना था। धार्मिक
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