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________________ रखना । मार्ग कठिन ही नहीं, बड़ा कठिन है। संभलकर संभलकर चलना ।” पू. गुरुवर्य्याश्री की आज्ञा मिलते ही हमने ठाणा चार से कन्याकुमारी के लिये विहार कर दिया। अनेक अनजान ग्राम नगरों में विचरण करते हुए हमें आनंद का अनुभव हो रहा था। इसका एक कारण यह भी था कि चार वर्षावास एक सी स्थान साहुकारपेठ मद्रास में होने से लगातार चार वर्षों से एक ही स्थान पर रहना हो रहा था । ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए हम कन्याकुमारी पहुंची । उपाध्यायश्री जी के सान्निध्य में कन्याकुमारी होली चौमासा बड़े आनंद मंगल एवं हर्षोल्लास के साथ सम्पन्न हुआ । पू.श्री सुमतिप्रकाशजी म.सा. एवं उपाध्याय श्री विशाल मुनिजी म.सा. के दर्शनार्थ हजारों की संख्या में भक्तों का आगमन हुआ । कन्याकुमारी की गली-गली में मतावलम्बियों का आवागमन हो रहा था । लग रहा था जैसे यह जैन मतावलम्बियों का ही स्थान हो । उपाध्यायश्री जी के प्रवचन श्रवण कर जनता मुग्ध हो रही था। टी. नगर वालों की ओर से सभी के लिये भोजन की सुंदर व्यवस्था थी । साहुकार पेठ, मद्राह से भी काफी संख्या में भाइयों और बहनों का आगमन हुआ। पू. गुरुवर्य्याश्री का पत्र आया कि कन्याकुमारी से तत्काल मद्रास के लिये विहार कर दो यहां से सब व्यवस्था हो जायेगी पू.गुरुवर्य्याश्री का आदेश मिलने पर पू. श्री सुमतिप्रकाश जी म.सा. एवं उपाध्याय श्री विशाल मुनिजी म.सा. से मंगल वचन सुनकर नागरकोयल की ओर से मद्रास के लिये विहार कर दिया । अब हमारा लक्ष्य शीघ्रताशीघ्र पू. गुरुवर्य्याश्री की सेवा में पहुंचना था । इसलिये प्रतिदिन २० - २५ कि.मी. का लगातार विहार होने लगा । हमारी भी पू. गुरुवर्य्या श्री के दर्शन करने की तीव्र भावना थी । इसलिये जितनी जल्दी पहुंच सके उतना ही अच्छा है। इसलिये निरंतर तीव्र गति से कदम आगे की ओर बढ़ते जां रहे थे। मंजिल काफी दूर है किन्तु उसे प्राप्त करने के लिये कदम भी तीव्र गति से आगे की ओर बढ़ रहे थे । मानों पैरों में पंख लग गये हो । लम्बे-लम्बे विहार होने पर भी कभी थकावट का अनुभव नहीं हुआ । पू.गुरुवर्य्याश्री के दर्शनों के लिये हृदय तड़प रहा था। बालक कुछ समय के लिये अपनी माता से दूर रह सकता है, वह खेल कूद में सब कुछ भूल जाता है किन्तु जैसे ही खेल समाप्त होता है वह अपनी माता से - मिलने के लिये तड़प उठता है और वह दौड़ कर अपनी माता की गोद में जाकर समा जाता है इस समय हमारी भी ठीक ऐसी ही दशा हो रही थी । हम भी अपनी गुरुवर्य्याश्री के सान्निध्य में जल्दी जल्दी पहुंचना चाह रही थी । " T हम लगभग तीन सौ किलोमीटर का विहार कर चुकी थी । प्रातः विहार कर वन में स्थित एक गेस्ट हाउस में मुकाम किया। आसपास कहीं किसी के मकान का पता नहीं था। चारों ओर जंगल ही जंगल था । चैत्र शुक्ल प्रतिपदाका दिन था। न जाने मेरा मन कुछ अनहोनी घटना से कांप उठा। उस दिन मैने गौचरी भी नहीं की । संध्या को चाय पीकर पच्चक्खान कर ली थी। जब सभी साध्वीजी आहार कर करने के लिये बैठी तो मुझे भी कहा गया। मैंने कह दिया कि भूख नहीं है। इस पर कंचनकुवंरजी कहने लगी कि कल २५ किलोमीटर का विहार है। आहार करना जरुरी है। अभी इच्छा नहीं है तो कुछ देर से आहार कर लेना । हम छोड देंगे। मैंने कहा कि आहार बचाने की आवश्यकता नहीं है । मेरी इच्छा आहार करने की बिलकुल नहीं हैं । गुरुकृपा से विहार आनंद के साथ होगा । प्रतिक्रमण के पश्चात् सभी सो गये। मैं दस बजे तक बाहर बैठी रही। आँखों में नींद का नाम नहीं थी। मुझे थकावट का भी अहसास नहीं हो रहा था । किंतु पेट में जलन होने लगी। मन बेचैन होने लगा और इसी समय ऐसा लगा कि मैने अपनी प्रिय गुरुवर्य्या से दूर होती जा रही हूं। जैसे मेरा खजाना कोई लूट रहा है। लगभग ग्यारह बजे मैं जाकर लेटी, किन्तु नींद कहाँ ? खिड़की से मैं आकाश की ओर देख रही थी । कि अचानक कहीं से आवाज आई । लगभग ११-४५ बजे का समय होगा । लगातार तीन आवाजे आई चंद्रा मैं जा रही हूं. चंद्रा मैं जा रही (६५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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