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________________ यहां आपश्री ने सुखविपाक सूत्र एवं श्रेणिक चरित्र पर अपने प्रवचन प्रारंभ किये। प्रभु महावीर का पवित्र संदेश महावीर शासन की आप जैसी सुयोग्य साध्वीरत्न पू. गुरुवर्या द्वारा विस्तार से सरल, सुबोध भाषा में सुनकर श्रोता मंत्रमुग्ध हो रहे थे। आपकी प्रवचन शैली सोने में सुहागे का काम कर रही थी। स्थानक भवन के प्रवचन सभागार में प्रतिदिन आपके प्रवचन हो रहे थे। जब पर्युषण पर्व आरंभ हुआ तो श्रोताओं की संख्या बढ़ने लगी और प्रवचन के लिये स्थानक भवन छोटा पड़ने लगा। इसलिये प्रवचन स्थल परिवर्तित करना पड़ा और अब प्रवचन स्थानक भवन मे स्थान पर जैन भवन में हजारों श्रोताओं की उपस्थिति में होने लगे। आठ दिनों तक अंतगड़सूत्र का वाचन किया। अलग अलग विषयों पर बहुत ही सुंदर ढंग से जन जन को आपने प्रभु महावीर का संदेश भी सुनाया। संवत्सरी के पश्चात् जैन भवन में ही सामूहिक क्षमापना का कार्यक्रम रखा गया। इस कार्यक्रम में श्वेताम्बर मूर्ति पूजक, तेरा पंथी, गुजराती-स्थानक वासी सम्प्रदाय की महासतियांजी के साथ ही आपश्री सभी एक ही पाटे पर बराबरी में बैठे। आज सभी के मुहं पर प्रेम और एकता की ही बातें थी। पू. गुरुवर्या श्री चम्पाकुंवर जी म.सा. ने इस अवसर पर अपने विचार व्यक्त करते हुए फरमाया - __ “उपस्थित धर्म प्रेमी सज्जनों ! आज परस्पर की फूट से हम बरबाद हो गये हैं, गौरवहीन हो गए हैं, प्रतिभा शून्य हो गए हैं, आज इस युग में हमारा कोई मूल्य नहीं रहा, क्योंकि हम परस्पर अपने घर में ही झगड़कर अपनी शक्ति नष्ट कर रहे हैं। हमारा स्नेह भाव समाप्त हो गया है। हम जोर से आवाज लगाकर विश्व को संदेश सुनाने की चेष्टा करते हैं किंतु जोश के साथ बोल नहीं पाते। कारण अपराधबोध से हमारी आवाज कुंठित है। सभी धर्मों की आवाज सरकार के कानों तक टकराती है हमारी आवाज वहां तक क्यों नहीं पहुँचती? आपने उत्तर से पुकारा मैने दक्षिण से आवाज दी, किसी ने पूर्व से नारा लगाया और कोई पश्चिम से बोला। न आवाज गूंजी न जोश आया, न अपनी बात में शक्ति आ पाई कि उसे मानने के लिये कोई मजबूर ो जाता। सरकार ने समझा यों ही व्यर्थ की बकवास है। यह किसी एक समह की संगठित आवाज नहीं बंधुओं, विखरे हुए मोती किसी के गले की शोभा नहीं बन सकते। छितरे हुए तिनकों से किसी का घर साफ नहीं होता। इधर उधर पड़ी हुई ईटों से किसी के मकान का निर्माण नहीं होता। धागों के अलग अलग तारों से लज्जा का आवरण नहीं बनता निवारण नहीं होता। हम भी जब तक बिखरे हुए है, अपनी ढपली अपना अपना राग अलापने में लगे हुए हैं, तब तक हमारा समाज उन्नति के शिखर पर नहीं पहुंच सकता। हम किसी कार्य के नहीं। भले ही हम अपनी कुटिया में अपने भक्तों के बीच गुड़ शक्कर बांटकर वाहवाही लूट लें। पर यह धन्यवाद का कार्य नहीं हो सकता। यह भगवान महावीर के शासन के प्रति भी ईमानदारी नहीं है। विचार कीजिये कि हमने भगवान महावीर के शासन की शोभा कितनी बढ़ाई। विज्ञ सज्जनों अधिक हो गया, भगवान महावीर के केसरिया झंडे के नीचे आकर अपने हृदयों के बीच खड़ी दिवारों को धराशयी कर दीजिये। अब संकुचित कोठरियों का जमाना गया। दिवारों को गिराकर विशाल हाल बनाने की की आवश्यकता है। बिना हाल के भवन की शोभा नहीं है। सजावट भी नहीं हो सकती है। क्या कारण है कि हम भेद डालने वाली दिवारें गिराकर विशाल रूप में एक नहीं हो पाते। जरा सोचिये विवाह (६३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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