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________________ सन्यासिनी बनेगी ऐसी तो उन्होंने कल्पना ही नहीं की थी। उन्हें बेटी की चिन्ता थी और भावी बेटी चम्पा को छीनने के प्रयत्न में थी । बेटी को कुचेरा के लिये विदा कर दिया किन्तु पिताजी को घर काटने को दौड़ रहा था । कुचेरा में नया जीवन- चम्पाकुमारी अपने माता-पिता की आज्ञा प्राप्त कर कुचेरा ग्राम में पहुंच गई। इन दिनों कुचेरा में परम विदुषी महासती श्री जमना जी म.सा. अपनी शिष्याओं के साथ विराजमान थीं । चम्पाकुमारी भी कुचेरा में महासती जी के पावन चरणों में जा पहुंची । चम्पाकुमारी प्रतिदिन प्रवचन - पीयूष का पान करने स्थानक जा पहुँचती और एकाग्रचित्त से प्रवचन श्रवण करती। मेघ से अनवरत अमृत बरसता और ज्ञान-प्यासी चातकी सी चम्पाकुमारी पीयूष-पान कर भाव विभोर हो जाती। जिन प्रश्नों का समाधान करने के लिये चम्पाकुमारी दिन रात चिंतन किया करती थी, फिर भी उसे उनका समाधान नहीं मिलता था। कुचेरा में महासती जी के प्रवचनों से चम्पाकुमारी को अपने प्रश्नों का समाधान मिलने लगा । जैसे-जैसे उसे समाधान मिलता, वैसे-वैसे उसकी वैराग्य भावना और भी दृढ़ से दृढ़तर होती जा रही थी । साध्वी समुदाय की वैराग्यपूर्ण पवित्र दिनचर्या, निर्मल संयम साधना, अध्यात्ममय वैराग्य से परिपूर्ण प्रवचन धारा चम्पाकुमारी की हृदय भूमि को काम, क्रोधादि कंकर कांटों से मुक्त कर कोमल बनाने में सचेष्ट थी । जिस प्रकार बीज की वृद्धि में हवा, पानी, धूप, मिट्टी आदि सहायक होते हैं, उसी प्रकार संत-सतियों का पावन सान्निध्य, उनकी साधना, दिनचर्या, उनका उपदेश, उनका भव्य व्यक्तित्व आराधक जीवों के लिए जीवन निर्माण में बड़े ही उपयोगी सिद्ध होते हैं । चम्पाकुमारी पर भी इस विशुद्ध वातावरण का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहा । "मुझे तो दीक्षाव्रत अंगीकार करके आत्म कल्याण करना है ।" उनके ये विचार और अधिक परिपक्व हो गए। पारस जैसे निर्जीव पाषाण के स्पर्श से यदि लोहे जैसी कठोर धातु सोना बन सकती हैं, तो सत्संग के प्रभाव से मानव महात्मा बने इसमें कौनसी विशेष बात है । चम्पाकुमारी की, प्रतिभा का बहुमुखी विकास हो रहा था। वे चिंतन मनन के अमूल्य क्षणों से गुजर रही थी । चम्पाकुमारी ने अपनी सेवा भावना, व्यवहार और स्वाध्याय प्रियता के द्वारा पू. महासती श्री जमना जी म.सा. का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया । दोनों के मध्य जो प्रसंग बना उसका विवरण प्रस्तुत करना मेरे लिए कुछ असम्भव है। हाँ, इतना अवश्य लिखा जा सकता है कि उक्त प्रसंग के पश्चात् चारों ओर से आपको प्रोत्साहन मिलने लगा । आप भी अहर्निश स्वाध्यायरत रहने लगी। विश्राम के क्षणों में आप शय्या पर अपने आपको आत्म तुला पर तोलती, संयम सुख कर है अथवा दुःखकर, यह आपका मुख्य विचार बिन्दु होता था । ज्यों ज्यों आप चिंतन करती त्यों त्यों आपका हृदय उल्लास ही उल्लास से भर जाता । संयम सुखकर फूलों की शैय्या सा कोमल एवं सुरभित प्रतीत होता । हृदय में एक लहर उत्पन्न हो जाती और विचार उत्पन्न होता कि वह कब साध्वी बनेगी ? साध्वी जीवन जीना आरम्भ कब से करूँगी ? संयम का अंतरंग एवं बाह्य रूप आकर्षित कर रहा था। जहाँ निर्वचनीय, निर्विकल्प शाश्वत सुख भरा हुआ था । आत्मानन्द में निमग्न संतों को संयम के बाह्य कष्टों का अनुभव नहीं होता। इसी कारण वे अपने ध्येय के प्रति निराकुल बढ़ते जाते हैं । चम्पाकुमारी का समय बड़े ही आनन्द से व्यतीत हो रहा था। चम्पाकुमारी के हृदय में संयम का बल था और इसी शक्ति के आधार पर उसने अपने माता-पिता से दीक्षाव्रत अंगीकार करने की अनुमति मांगी। किन्तु मोह का बंधन बड़ा कठोर होता है । मोह के कारण - माता-पिता ने अपनी पुत्री को संयम मार्ग पर चलने की अनुमति नहीं दी । किन्तु वैराग्य के अनवरत प्रवाह को रोकने का सामर्थ्य किसी में भी नहीं है । Jain Education International (४८) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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