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________________ चम्पाकुमारी के वैराग्य से परिपूरित शब्दों को सुनकर महासती जी ने कहा- “बहन ! दीर्घदृष्टि कार्य करना ऐसा कोई कार्य मत करना जिससे भविष्य में पश्चाताप करना पड़े। आवेश में आकर कोई कार्य नहीं करना चाहिए। क्योंकि आवेश में आकर किया गया कार्य आवेश समाप्त होने पर मानव को बड़ी विकट स्थिति में डाल देता है। अभी तुम युवा हो, यौवन बहुत शेष है। पूरी तरह विचार विमर्श करके विवेक के साथ ही आगे कदम बढ़ाना ।” इस वार्तालाप के पश्चात् चम्पाकुमारी अपने आवास की ओर चली गई । दीक्षा मार्ग की बाधा - परिवार के किसी भी सदस्य को अभी तक यह कल्पना भी नहीं थी कि चम्पाकुमारी संयम के मार्ग पर चलने का संकल्प ले चुकी है। इसका कारण भी यही था कि अपनी भावना को उन्होंने किसी के भी समक्ष प्रकट नहीं किया था। एक दिन चम्पाकुमारी ने अपने मन की भावना को परिवार के समक्ष प्रकट कर ही दिया। चम्पाकुमारी की भावना को जानकर परिवार के सदस्यों में से कोई भी व्यक्ति उनकी दीक्षा लेने की बात को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था । उनको किसी का भी समर्थन नहीं मिला। इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि दीक्षा की अनुमति प्राप्त करने के लिए उन्हें कितना संघर्ष करना पड़ा होगा। उनका वैराग्य कोई श्मशान वैराग्य नहीं था । सच्चे ज्ञानगर्भित वैराग्य की अदम्य शक्ति उनके पास थी । अन्ततः उनके वैराग्य का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहा। सबको अपने अनुकूल बनाने के लिए उन्हें काफी कठिनाइयां भी उठानी पड़ी। जहाँ चाह होती है, वहाँ राह होती है । महापुरुषों का मनोरथ कभी भी निष्फल नहीं होता । राजस्थान एवं अन्यत्र आज भी ऐसी प्रथा है कि विधवा होने के पश्चात् बेटी को उसके पितृपक्ष वाले ही सर्वप्रथम अपने यहाँ ले जाते हैं। उसके पश्चात् ही अन्यत्र आना जाना सम्भव होता है। इसे 'देहलीज छुड़ाने' की प्रथा कहते हैं। अस्तु परम्परानुसार चम्पाकुमारी के समक्ष भी यह प्रसंग उपस्थित हुआ और आप अपने पिता के यहाँ चली गई । पितृगृह में पहुँचने के पश्चात् एक दिन अवसर देख कर आपने अपने पिताश्री के समक्ष निवेदन किया- “मेरी इच्छा अपनी पूजनीया भुआ जी साध्वी रत्न श्री कानकुंवरजी म.सा. के दर्शनार्थ कुचेरा जाने की है” अपनी पुत्री की बात सुनकर अनुभवी पिता का माथा ठनका। उनके मन में संकल्प विकल्पों का संघर्ष मचा कि यह क्या कह रही है। जिसने आज तक जिनका नाम ही नहीं लिया उनके दर्शन करने की इतनी उत्सुकता ? यह उत्सुकता निष्प्रयोजन तो हो नहीं सकती । कहीं इसके मन में दीक्षा लेने की भावना तो नहीं है ? दामाद को क्रूर काल ने छीन लिया। क्या यह जीवित ही छोड़ जाने को उद्यत है। इस प्रकार आपके पिताजी के मन में शंकाओं का अम्बार लग गया । मन बेटी को कुचेरा भेजने के लिये तैयार नहीं था। यदि जाने से मना कर दिया तो यह अपने आपको सर्वधा निराधार या असहाय समझ कर दुःखी होगी । यदि जाने दिया तो संभव है, लौट कर न आये, यदि लौट भी आई और दीक्षा का बखेड़ा लेकर आयी तब क्या होगा ? समस्या बड़ी विकट थी । इसका समाधान कठिन था । विचार करते करते काफी देर हो गई फिर भी समस्या अपने स्थान पर यथावत बनी रही । अन्य कोई भी मार्ग न मिलने पर विवश होकर पिता ने शीघ्र ही लौट आने की बात कह कर चम्पाकुमारी को कुचेरा जाने की अनुमति दे दी । कर्तव्य के मजबूत बंधन में आबद्ध मानव कभी-कभी अपने अन्तर की आवाज व मन के विपरीत आचरण करने के लिये बाध्य हो जाता है । भावी अपने पैर पसार रही थी। भावी के प्रभाव से विवश बना अनुभवी मानव बहा जा रहा था । उसे क्या पता था कि उनका कुचेरा गमन सन्यास मार्ग पर आरूढ़ कर देगा। उनकी लाड़ली चम्पा बेटी (४७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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