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________________ दर्शनार्थ आए श्रावक-श्राविका से आप शास्त्र संबंधी, स्वाध्याय सम्बन्धी चर्चा ही करते। इधर उधर की फालतू बात करते मैने आपको कभी नहीं देखा। अनुशासन- आपका अनुशासन सराहनीय था। न कटुता न कठोरता, आपकी कथनी करनी में कोई अंतर नहीं होता था। आप बनावटी बातों से दूर रहते थे। आपको व्यावहारिकता पसंद थी। जीभ और जीवन की समानता में आपने अपना जीवन व्यतीत किया और इसके अनुरूप जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा आपने अपनी शिप्याओं को भी दी। चमत्कार- मुझे एक घटना का स्मरण हो रहा है। जिस समय भोपाल (म.प्र.) से विहार कर आगे की ओर कदम बढ़ रहे थे, मार्ग में भयानक जंगल था, चारों ओर क्रूर पशुओं की डरावनी आवाजें सुनाई दे रही थी। एक स्थान पर जहां आदिवासियों के कुछ मकान थे। वहीं रात्रि विश्राम करने का विचार किया। कारण कि आगे का मार्ग और भी लम्बा था और समय रहते वहां तक पहुंचना सम्भव नहीं था। __अचानक अर्द्धरात्रि के समय एक व्यक्ति वहां पहुंचा। उस व्यक्ति के कंधे पर बन्दूक और हाथ में तलवार थी। वह आकर जोर-जोर से चिल्लाने लगा- तुम कौन हो? कहां से आये हो? मैं और सभी सतियां जी घबरा गई कि अब क्या होगा? हमारे पांव तले की धरती खिसकने लगी। अब इस भयानक जंगल में हमारी रक्षा कौन करेगा? गुरुवर्या की ओर देखा तो पाया कि वे अपने आसन पर बैठे निश्चित भाव से माला जप रहे हैं। अचानक हमारे मानस पटल पर गुरुवर्या को देखते ही विश्वास के भाव आ गए और लगा कि अब हमारे पास ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रभाव से वह व्यक्ति जिस प्रकार आया है उसी प्रकार चला भी जायगा। और आश्चर्य ! ऐसा ही हुआ। वह व्यक्ति किसी दुभविना को लेकर आया था किन्तु कुछ देर चिल्लाकर शांत हो गया। उसकी शरारत शराफत में परिवर्तित हो गई और वह शांत मन से वापस लौट गया। विहार यात्रा- आपने अपने आपको केवल मारवाड़ तक ही सीमित नहीं रखा। आपने राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु जैसे दूरस्थ प्रदेशों की यात्रा कर जैनधर्म की प्रभावना कर गुरु गच्छ का नाम उज्ज्वल किया है। अंत में इतना ही कहा जा सकता है कि आपके सम्पर्क में जो भी आया वह आपके गुणों से प्रभावित हुए बिना न रह सका। आपके सद्गणों का ही परिणाम है कि आज आपके सिंघाड़े में विदुषी शिष्या एवं प्रशिष्यायें हैं। मैंने आपके मुखमंडल पर कभी भी क्रोध की रेखा नहीं देखी। आपको सदैव, हर परिस्थिति में मुस्कराते ही देखा है। अस्वस्थता के क्षणों में भी आपका मुखमंडल शांत और सौम्य रहता। किसी प्रकार की वेदना के भाव आपके मुख मंडल पर प्रकट नहीं होते थे। मेरे जीवन को सुसंस्कार आपसे ही मिले। आपने एक अनघड़ को घड़ दिया। मुझे इस बात का दुःख सदैव रहेगा कि मैं आपके अंतिम दर्शनों से वंचित रही। असीम वेदना के साथ मैं अपनी भावांजली/श्रद्धाजंलि अर्पित करती हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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