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________________ आँखों देखा यथार्थ • साध्वी श्री तरुणप्रभा 'तारा, आमेट वि. सं. २०३३ में महासती श्री कानकुंवर जी म.सा, परमविदुषी महासती श्री चम्पा कुंवर जी म.सा. एवं महासती श्री बसंतकुंवरजी म.सा. ठाणा तीन चातुर्मासार्थ मेड़ता सिटी में विराजमान थे। मेड़ता सिटी भक्त शिरोमणी मीराबाई की नगरी के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। इसी नगरी में सुप्रसिद्ध योगीराज श्री आनन्दघन ने आध्यात्मिक रस की धारा प्रवाहित की और काव्य रचना भी की। उस समय मैं जैन धर्म से अनभिज्ञ थी। जैन धर्म के प्रति मेरी कोई रुचि भी नहीं थी। मैंने तब तक जैन मुनियों और महासतियों के दर्शन भी नहीं किये थे। जिस समय मैं अध्यापन के लिये घर से स्कूल के लिये निकल रही थी। ठीक उसी समय एक जैन साध्वी जी का मेरे यहां आहार लेने के लिए आगमन हुआ। मैं उन दिनों शिक्षिका के रूप में नौकरी कर रही थी। महासती ने मुझे स्थानक में आने के लिये कहा। मैं दूसरे दिन उनके दर्शन करने के लिए स्थानक जा पहुंची। उस समय महासती जी ध्यान में बैठे हुए थे। जैसे ही मैंने उनके दर्शन किये और उनकी ध्यान साधना, तप, जप आदि की जानकारी मिली वैसे ही मेरा हृदय उनकी ओर आकर्षित हो गया। वहीं मुझे इन तीनों महासतियांजी से व्यक्तिगत परिचय प्राप्त करने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। मुझे हार्दिक खेद हुआ कि जिन धर्म पुरुषों के प्रति मैं जितने घृणा के भाव रखती थी। उनमें तो अनेक विशेषताएं हैं। गुरुणी जी श्री कानकुंवर जी म. सा. के चुम्बकीय व्यक्तित्व ने मुझे उनकी ओर आकर्षित कर लिया। उसी समय से आपकी सेवा में रहने की मेरे मन में भावना उत्पन्न हुई। अपनी इसी भावना के अनुकूल मैं लगभग दो तीन वर्ष तक आपके साथ रही। मैंने इस अवधि में आपके जीवन को बहुत ही निकट से देखा। उन्होंने मुझ अज्ञानी के जीवन में ज्ञान की ज्योति प्रज्वलित की। मुझ भूली भटकी आत्मा को सही मार्ग बताया, मुझे सम्बल प्रदान किया। उनके सान्निध्य में रहते हुए उनके विषय में जो मैं जान सकी वहीं, यहां लिखने का प्रयास कर रही हूँ। स्वभाव- आपके स्वभाव में जो सरलता मैने निकटता से देखी है, वैसी सरलता अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। उनके जीवन में छल कपट या असत्य किसी भी प्रकार से देखने को नहीं मिलता। किसी के भी प्रति द्वेष या रोष तो आपको छू तक नहीं पाया था। महापुरुषों से मिलना और उनके सद्गुणों को ग्रहण करना ही आपका प्रथम धर्म था। __ वाणी की मधुरता- आपकी वाणी में मधुरता अपना विशिष्ट स्थान रखती थी। जिस समय आप प्रवचन फरमाते थे, उस समय आप उद्धरण रूप में चौपाई आदि भी सुनाया करते थे। तब आपकी वाणी की मिठाई का सहज ही आभास हो जाता था। आपकी वाणी का सुनकर श्रोता भाई, बहन मंत्र मुग्ध हो जाते थे। आपकी वाणी का प्रभाव ही कुछ ऐसा था कि अनपढ़ व्यक्ति भी उनके प्रवचन को आसानी से समझ लेता था। आपकी वाणी में कोयल की वाणी का मिश्रण प्रतीत होता था। (३५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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