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अवशेष राख को पवन उड़ा ले आता॥ तप तेज तुम्हारे मन में चमक रहा था: अवसाद ह्रास में शीघ्र बदल जाता है। अन्तर आत्मिक आभा से दमक रहा था ॥
जाने वाला ही विधि का फल पाता है। थक गई देह पग-पग पथ चलते-चलते । रम गया चित्त चिंतन और मनन में।
चुक गया नेह दृग दीपक जलते-जलते ॥ अध्ययन गहन करने में श्रुत मंथन में॥ तुलछा जी की उलझन तुमने सुलझाई। मन में न रहा लवलेश कहीं भी भ्रम तम। समता से निर्ममता की राह बताई ॥ __ है चिदानंद चैतन्य स्वरूपी आतम॥ तुम सेवा की प्रतिमूर्ति न तुमसा कोई । यह अरस अरूपी अस्पर्शी अविनाशी। सब कुछ खोकर भी ज्ञान निधि नहीं खोई ॥ चित पिण्ड चण्ड गुण गण निधान तप वासी ॥ तन पर जितनी रेखायें है उतने गुण। अध्ययन लगन से किया ज्ञान रवि जागा। चन्द्र करे तुम्हारे गुण का कैसे वर्णन ॥
अज्ञान हृदय से जान बचाकर भागा। सत्य संयम की सौरभ महका निज जीवन तुम सती नहीं हो महासती गुण मण्डित।। निखारे।
आदर्श ज्ञान संयम से पूरित पण्डित ॥ मद्रास की धरा पर आकर स्वर्गधाम पधारे ॥ श्री सन्त हजारीमल जी का निर्देशन। श्रद्धापुष्प अर्जित करती हूं कर लेना स्वीकार ।
. पाकर जागा निश्चेतन में भी चेतन ॥ 'चन्द्रा' तव चरणों की चेरी कर देना भव : तुम गुरु हो गुरु से भी गुरुत्तर है वाणी।
पार॥ __ है महासती की वाणी जग कल्याणी ॥ तुमने पग-पग चल-चल कर अलख जगाया। ___ जन-जन को अपने पन का पाठ पढ़ाया '' है मधुर साधना गुरु सेवा मन भावन।
सेवा से तन-मन हुए तुम्हारे पावन ॥
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