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करती थी। उस समय श्रोता कहानी मन में नागोता
nाना सनन.
७ गुरुणी मैया अपने सुरीले कंठ से चौपाई सुनाया करती थीं। जिस समय गुरुणी मैया चौपाई का सस्वर पाठ करती थी, उस समय ऐसा प्रतीत होता कि मानो कहीं कोयल कुहूक रही है या वीणा के तार झंकृत हो रहे हैं। गुरुणी मैया चौपाई भी भिन्न भिन्न रागों में सुनाया करती थी, जिससे श्रोता बहन भाई मंत्र-मुग्ध हो जाया करते थे। आपकी मधुर वाणी की श्रोताओं पर गहरी छाप पड़ती थी। शुद्ध मारवाड़ी भाषा में जब आप चौपाई या किसी काव्य को सस्वर सुनाती थी तो श्रौताओं का मन मयूर नाच उठता था। श्रोता उस समय अनिर्वचनीय आनंद की अनूभुति करते थे। यहां उल्लेखनीय बात यह है कि गुरुणी मैया अपनी बात मारवाड़ी भाषा में कहना अधिक पसंद करती थी। चौपाई काव्य के अतिरिक्त वे मारवाड़ी भाषा में कहानियां भी सुन भूल जाया करता था।
आपका ब्यावर चातुर्मास बहुत धूमधाम के साथ विभिन्न धार्मिक कार्यक्रम के साथ सानंद सफल हुआ और चातुर्मास के पश्चात जब ब्यावर से विहार करने का समय आ गया तो सभी आश्चर्य से भर गए कि चातुर्मास इतनी जल्दी समाप्त हो गया। ब्यावर श्री संघ ने चातुर्मास के पश्चात् आपको भावभीनी बिदाई दी।
पाली वर्षावास :- मैं गुरुणी मैया की सेवा में दीक्षित हो चुकी थी। वर्षावास मेरे लिए पहला ही था। वर्षावास पाली में होना निश्चित हो चुका था। पाली में स्व. स्वामी श्रीब्रजलालजी म.सा. स्व. युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी म.सा. 'मधुकर' जो उस समय उपाध्याय के पद पर सुशोभित थे का वर्षावास भी था। प्रतिदिन प्रवचन गंगा प्रवाहित होती और श्रोता उसका लाभ उठाते। प्रवचन सुन सुनकर श्रोता मंत्र मुग्ध हो जाते थे। बड़े ही ठाट-बाट से वर्षावास के कार्यक्रम चल रहे थे।
पाली वर्षावास की अवधि में ही गुरुणी मैया के संसारपक्षीय ज्येष्ठ भ्राता श्रीमान फूसालालजी और भतीजे श्री कस्तूरचंदजी का चार पांच बार पाली गुरुदेवों के दर्शनार्थ एवं जिनवाणी श्रवणार्थ आगमन हुआ
और उन्होंने गुरुदेव की सेवा में बार बार विनती प्रस्तुत करते हुए निवेदन किया कि महासती श्री कानकुवंरजी म.सा. एवं उनकी शिष्याओं को कटंगी (मध्य प्रदेश) को पावन करने की आज्ञा प्रदान करने की कृपा करें। गुरुदेव ने श्रीमान फूसालालजी की भावना को ध्यान में रखते हुए गुरुणी मैया को कटंगी की
ओर विहार करने की आज्ञा प्रदान कर दी। गुरुदेव की आज्ञा सुनकर गुरुणी मैया कुछ क्षण तो मौन ही रही। संभवत: विचार कर रही हो कि इतने वर्षों तक तो मारवाड़ में ही विचरण किया। गुरुदेव का सानिध्य भी बराबर बना रहा। अब गुरुदेव की वृद्धावस्था भी है और ऐसे में इतनी दूर विहार करने की आज्ञा। आपने गुरुदेव की सेवा में निवेदन किया - "गुरुदेव ! आपश्री की वृद्धावस्था आपश्री की सेवा छोड़कर इतना लम्बा विहार ! कुछ अच्छा नहीं लग रहा है।"
___ “आयुष्य की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। इधर की चिंता छोड़ दो और सुराणाजी की बात पर ध्यान दें। उनकी भावना को स्वीकार कर लें।" गुरुदेव ने फरमाया।
इससे आगे गुरुदेव से कोई अन्य बात नहीं हुई। गुरुणी मैया ने जान लिया कि गुरुदेव का आदेश अंतिम है। उसका पालन करना ही है। गुरुणी मैया अपनी दीक्षा से लेकर अभी तक मारवाड़ में ही विचरण करती रही थी। गुरुदेव का सान्निध्य भी बना रहा था। अब एकाएक सुदूर क्षेत्र की ओर विहार होगा। यह अब अटपटा तो लग रहा था किंतु नये क्षेत्र की ओर धर्म प्रचार के लिये जाने का एक अच्छा अवसर था।
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